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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२५ अपने चरित्र नायक महावीर का जीव दसवें स्वर्ग से वासुदेवरूप में कहाँ उत्पन्न होता है ? वह देखें- भरतक्षेत्र की पोदनपुरी में भगवान ऋषभदेव, बाहुबलि के वंश में असंख्यात बड़े-बड़े राजा हुए और मोक्ष प्राप्त किया। उनमें अनुक्रम से प्रजापति नाम के राजा हुए। उनके दो पुत्र - (१) विशाखभूति का जीव (जो पूर्वभव में विश्वनन्दि के काका थे वे) विजय बलदेवरूप में अवतरित हुए और (२) विश्वनन्दि (महावीर का जीव) त्रिपृष्ठ वासुदेव रूप में अवतरित हुए। ___उसीसमय पूर्वभव का नन्द-विशाख का जीव विद्याधरों की अलकापुरी नगरी में राजकुमार के रूप में अवतरित हुआ, उसका नाम अश्वग्रीव रखा गया। उस
अश्वग्रीव को अनेक विद्याएँ सिद्ध हुईं तथा दस हजार आरेवाला सुदर्शन चक्र, दंड, छत्र, खड्ग आदि अनेक दैवी-आयुध प्राप्त हुए। तीनों खण्डों पर विजय प्राप्त करके वे आधे भरतक्षेत्र के स्वामी (अर्धचक्री-प्रतिवासुदेव) हुए। दग्ध पुण्य के फल का उपभोग करते हुए उन अश्वग्रीव की हजारों राजा सेवा करते थे। पुण्य से क्या नहीं मिलता ? ___अरे ! आराधक दशा में बाँधकर पश्चात् निदान बंध द्वारा जलाये हुए दग्ध-पुण्य का भी ऐसा फल है, तो आराधक भावसहित बाँधे हुए आश्चर्यकारी सातिशय-पुण्य का क्या कहना !....तथा पुण्यराग से परे ऐसी चैतन्य आराधना के वीतरागी आनन्द की तो बात ही क्या!.... धन्य आराधना ! धन्य वीतरागता ! धन्य उसका प्रशंसनीय फल ! ___ एक दिन पोदनपुर में महाराजा प्रजापति दोनों पुत्रों (विजय और त्रिपृष्ठ) सहित राजसभा में बैठे थे। उससमय मंत्री ने निवेदन किया - हे स्वामी ! आपकी प्रजा सर्व प्रकार से सुखी होने पर भी उसे आजकल एक महा भयंकर सिंह ने लोगों की हिंसा करके भयभीत कर रखा है। उसका उपद्रव इतना बढ़ गया है कि लोग इधर-उधर आ-जा भी नहीं सकते।
यह सुनते ही राजा को खेद हुआ कि अरे ! खेत में अनाज की रक्षा हेतु बाँस का बिजू (बनावटी आदमी) हो, उससे भी हिरण आदि प्राणी भयभीत होकर भागते हैं और फसल की रक्षा होती है; फिर मैं इतना पराक्रमी होकर भी अपनी प्रजा की रक्षा न कर सकूँ यह तो शर्म की बात है। जो प्रजा का दुःख दूर न कर