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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२६ सके वह राजा किस काम का ? ऐसा विचार कर राजा ने सिंह को मारने के लिये सेना को तैयार होने की आज्ञा दी। - इतने में त्रिपृष्ठकुमार उठे और हँसकर बोले – 'पिताजी एक हिंसक पशु को मारने के लिये स्वयं आपको कष्ट उठाना पड़े, तो फिर हम किस काम के ? इतने छोटे से काम के लिये आपका जाना आवश्यक नहीं है। मैं अभी जाकर सिंह को मारता हूँ। ऐसा कहकर त्रिपृष्ठकुमार वन में गये। सिंह को गुफा से बाहर निकाला। एक हाथ से सिंह के अगले पंजे पकड़े और दूसरे हाथ से झपट्टा मारकर उसे नीचे पछाड़ दिया; फिर जिसप्रकार बजाज कपड़ा फाड़ता है तदनुसार सिंह का मुँह फाड़कर उसको चीर दिया। (मानों उस सिंह को मारने के क्रूर परिणामवश त्रिपृष्ठ को भी अगले भवों में सिंह की पर्याय में जाना पड़ेगा। पाठको ! ऐसे पराक्रम की घटना में वासुदेव को हिंसा में आनन्द माननेरूप ‘हिंसानन्दी-आर्तध्यान' के जो क्रूर परिणाम वर्तते हैं, उन परिणामों से उसे नरकगति का बन्ध होता है।) । ___सिंह को मारने से उन राजकुमार के पराक्रम की प्रशंसा चारों ओर फैल गई। तत्पश्चात् एकबार कोटिशिला' को ऊपर उठाकर उन्होंने महान पराक्रम किया। इस कोटिशिला से करोड़ों मुनिवरों ने मोक्ष प्राप्त किया है। साधारण मनुष्य उसे ऊपर नहीं उठा सकते; नारायण - वासुदेव ही उसे उठाते हैं। एकबार जो प्रथम तीर्थंकर का पौत्र था, वही जीव असंख्यात वर्ष पश्चात् उन्हीं के कुल में अवतरित होकर प्रथम नारायण-अर्धचक्री हुआ। नौ नारायणों में यह प्रथम नारायण, श्रेयांसनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हुए । विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी ने अपनी पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह त्रिपृष्ठ के साथ किया; तब उसके प्रतिस्पर्धी राजा अश्वग्रीव को अपमान लगा कि विद्याधर ने श्रेष्ठ कन्या मुझेन देकर त्रिपृष्ठ को क्यों दी ? इससे क्रोधित होकर वह त्रिपृष्ठ के साथ युद्ध करने चला। उधर त्रिपृष्ठकुमार ने भी युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी; उसके लिये वह विद्या सिद्ध करने लगा। दूसरों को जो बारह वर्षों में सिद्ध होती हैं - ऐसी विद्याएँ त्रिपृष्ठ को पुण्यप्रताप से मात्र सात दिन में सिद्ध हो गई। अहा ! पुण्य द्वारा जगत में क्या साध्य नहीं है ? पुण्य से जगत में सब कुछ मिल जाता है; परन्तु चैतन्य का अतीन्द्रिय सुख उससे प्राप्त नहीं होता। इसीलिये तो मुमुक्षु जीव कहते हैं कि अरे, ऐसे हत्पुण्य का हमें क्या करना है ?