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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२४ निदानशल्य कर बैठा कि 'मेरे धर्म के फल में मुझे भी ऐसी विभूति प्राप्त हो !' अरे रे ! धर्म के फल में उसने पुण्य भोगों की याचना की, अमृत के फल में विष माँगा। इसलिये वह भी मिथ्यादृष्टि हुआ और उसके संचित पुण्य अल्प हो गये। हाथ में आये हए धर्मरत्न को फेंक कर उसके बदले में उसने विषयभोगों का कोयला माँगा, अतः धिक्कार है विषयाभिलाषा को ! व्रतभ्रष्ट ऐसे उन विशाख मुनि का जीव भी निदान बंध सहित मरकर दसवें स्वर्ग में देव हुआ और विषय-भोगों की लालसा में ही असंख्य वर्ष व्यतीत किये।
(प्रिय पाठको ! महावीर होनेवाला यह विश्वनन्दि का जीव स्वर्ग से चयकर अब त्रिपृष्ठ वासुदेव और उसका भाई नन्द-विशाख प्रतिवासुदेव होगा। वह कथा आप अगले प्रकरण में पढ़ेंगे।)
जैनधर्म अर्थात् पंचपरमेष्ठी की नगरी हमें महाभाग्य से इस नगरी में प्रवेश मिला है। आत्मिकसुख इसी नगरी में प्राप्त होता है; इस नगरी का रहन-सहन ही कोई भिन्न प्रकार का, अपूर्व एवं रागरहित होता है। इस वीतराग नगरी के निवासी पंचपरमेष्ठी भगवन्त तथा साधर्मी जगत से भिन्न भाववाले होते हैं।
आओ....इस नगरी में आये हो तो अब इस नगरी के आत्मवैभव को (तीर्थंकरों के महापुराण द्वारा) जान लो। यह समस्त वैभव तुम्हारा ही है। वह दिखलाकर भगवन्तों ने उपकार किया है।
पूर्वभव : त्रिपृष्ठ वासुदेव जहाँ हम रहते हैं उस भरतक्षेत्र में, प्रत्येक(अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी) कालचक्र में (प्रत्येक के दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम में) दो बार २४-२४ तीर्थंकर भगवन्त अवतरित होते हैं। वे सर्वज्ञ होकर, ज्ञानानन्द आत्मा का स्वरूप समझा कर उसकी वीतरागी उपासनारूप मोक्षमार्ग बतलाते हैं और उनके उपदेश से लाखों-करोड़ों-असंख्यात जीव धर्म प्राप्त करके संसार से मुक्त होते हैं। उनमें इस चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर महावीर भगवान का २५००वाँ अभूतपूर्व महोत्सव भारतभर में मनाया गया था। उस अवसर पर पूज्य श्री कानजीस्वामी की प्रेरणा से लिखे गये इस ग्रन्थ में भगवान महावीर का मंगल जीवन आप पढ़ रहे हैं। उनके पूर्वभवों का वर्णन चल रहा है।