________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२१ बहाने राज्य से दूर भेज दिया। आज्ञाकारी युवराज शत्रु को जीतने के लिये सेना सहित चल दिया। उसके जाने पर उसके चचेरे भाई नन्द-विशाख ने उसके प्रिय उद्यान पर अधिकार कर लिया। शत्रु राज्य पर विजय प्राप्त करके युवराज विश्वनन्दि शीघ्र ही राजगृही लौट आया। उसके मन में अपने उपवन की चिन्ता थी; उपवन को देखे बिना उसे चैन नहीं पड़ता था। (हे भव्य पाठको ! कुछ ही देर में तुम देखोगे की ऐसी घटनाएँ भी भव्यजीवों को किसप्रकार हित का कारण होती हैं !)
राजगृही नगरी में आकर उसने देखा कि प्रजाजन भयभीत हो रहे हैं। नन्दविशाख (उसका चचेरा भाई) उसके उद्यान पर आधिपत्य जमाकर उससे लड़ने को तैयार बैठा है। युवराज विश्वनन्दि ने उसके साथ युद्ध किया। अत्यन्त वीरतापूर्वक पत्थर का एक खम्भा उठाकर उसके प्रहारों से उसने शत्रुसेना के छक्के छुड़ा दिये। उसके पराक्रम से भयभीत होकर नन्द-विशाख भागा और जान बचाने के लिये एक वृक्ष पर चढ़ गया; परन्तु अति बलवान विश्वनन्दि ने क्रोध पूर्वक उस वृक्ष को उखाड़ डाला। अन्त में नन्द-विशाख उसकी शरण में आया और चरणों में गिरकर क्षमा-याचना करने लगा।
यह देखकर उदार हृदय विश्वनन्दि को दया आई और उसका क्रोध शान्त हो गया। अरे ! भाई के साथ युद्ध करके अब मैं पितातुल्य काका विशाखभूति को क्या मुँह दिखाऊँ ? इसप्रकार लज्जित होकर वह राज्य छोड़कर दीक्षा हेतु वन में जाने को तैयार हुआ। 'दुर्जनों द्वारा किया गया अपकार भी सज्जनों को कभीकभी उपकाररूप हो जाता है। जिस उद्यान के मोहवश युद्ध करना पड़ा, उसे छोड़कर मुनिदीक्षा ग्रहण करने हेतु वह राजकुमार दिगम्बर जैनाचार्य के निकट जा पहुँचा। वन में संभूतस्वामी नाम के दिगम्बर जैनमुनि संघसहित विराज रहे थे। रत्नत्रय-पुष्पों से सुशोभित वह मुनिसंघ धर्म के सुन्दर उपवन समान था, विश्वनन्दि ने मुनिराज के चरणों में नमस्कार किया और उनके श्रीमुख से राग-द्वेष रहित चैतन्य के शुद्धस्वरूप का श्रवण करके, स्वानुभूतिपूर्वक दिगम्बर जिनदीक्षा अंगीकार की। राजा विशाखभूति ने भी जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। भविष्य के महावीर भगवान का जीव विश्वनन्दि अब बाह्य उपवन का ममत्व छोड़कर अन्तर में रत्नत्रय पुष्पों से सुशोभित चैतन्य-उपवन में विचरने लगा; तप द्वारा उसका चैतन्य उद्यान खिल उठा था।