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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६ / २०
से भी उसकी राजगृही के प्रति ममता हो, इसलिये वह जीव राजगृही में राजकुमार के रूप में अवतरित हुआ ।
पूर्वभव : राजगृही नगरी में विश्वनन्दि राजकुमार (वैराग्य, धर्मप्राप्ति, जिनदीक्षा, निदानबंध, दसवें स्वर्ग में देव ) अपना भारत देश अर्थात् तीर्थंकरों की पुण्यभूमि, उसमें भी मगध देश और उसकी भी राजगृही नगरी विशिष्ट तीर्थ समान है । वहाँ पुण्यवन्त धर्मात्मा जीव निवास करते हैं और जैनधर्म का प्रताप वर्तता है ।
अपनी कथा का मुख्य पात्र अर्थात् अपने चरित्र नायक का जीव इस धर्म नगरी में विश्वभूति राजा के पुत्ररूप में धर्म प्राप्त करने हेतु अवतरित हुआ है जिसका नाम 'विश्वनन्दि' है ।
राजा विश्वभूति श्वेत केश देखकर संसार से विरक्त हुए और अपने भ्राता विशाखभूति को राज्य सौंपकर तथा विश्वनन्दिकुमार को युवराज पद देकर चार सौ राजाओं सहित जिनदीक्षा लेकर मुनि हुए ।
विशाखभूति ने सुन्दर ढंग से राज्य का संचालन किया और विश्वनन्दि युवराज ने उन्हें अच्छा सहयोग दिया। युवराज ने एक अति सुन्दर उद्यान बनवाया था; उसके सुन्दर पुष्प मानों 'चैतन्य उद्यान' विकसित होने की पूर्व सूचना देते हों - इसप्रकार सुशोभित होते थे । यद्यपि अभी चैतन्य उद्यान खिला नहीं था, इसलिये चैतन्य उद्यान की अतीन्द्रिय शोभा को नहीं जाननेवाला वह भव्य, बाह्य उपवन की सुन्दरता पर मुग्ध था। वह उद्यान अनेक प्रकार के उत्तम वृक्षों से शोभायमान था, बारम्बार मुनिवर पधार कर उस उद्यान की शोभा में अभिवृद्धि करते और वहाँ असमय ही आम्रवृक्ष फलते थे। उस अद्भुत उद्यान के प्रति युवराज विश्वनन्दि को अति ममत्व था; क्यों न हो ? जबकि वह उद्यान ही उसके चैतन्य उद्यान के खिलने में क़ारणभूत होनेवाला है।
एकबार उसके काका के पुत्र राजपुत्र 'नन्द - विशाख' (विशाखनन्दि) ने वह अद्भुत उद्यान देखा और उसका मन मोहित हो गया। उसने माता-पिता के पास वह उद्यान उसे दिलवा देने की हठ की। अपने पुत्र को उद्यान दिलवा देने के लिये विशाखभूति ने कपटपूर्वक विश्वनन्दि को काश्मीर राज्य पर विजय प्राप्त करने के