________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१६ तथापि देखो तो सही, चेतन के स्वभाव की अद्भुतता.... कि ऐसे दुःखों के बीच भी अपने चैतन्यस्वभाव को उसने नहीं छोड़ा; स्वयं अपने चेतनप्राण द्वारा वह जीता ही रहा । तथा अनन्तदुःख भोगने पर भी अपने सुखस्वभाव को नहीं छोड़ा.. इसीलिये तो दुःख से परिमुक्त होकर वही जीव आज अनन्त सुख सहित सिद्धपद में विराजमान है..वाह रे वाह चैतन्य ! तेरा स्वभाव ! वास्तव में अद्भुत है।
निजभाव को छोड़े नहीं, परभाव किंचित् ना ग्रहे ।
ज्ञाता रु दृष्टा सर्व का मैं, ज्ञानी इसी विधि चिन्तवे॥
अत्यधिक दुःखों से पीड़ित वह महावीर का जीव, मानों अब उनसे छूटने तथा भगवान होने हेतु कटिबद्ध हुआ हो, तदनुसार बड़ी कठिनाई से दीर्घकाल में कुयोनियों से निकलकर पुन: मनुष्य हुआ; निगोददशा को अन्तिम प्रणाम करके सदा के लिये छोड़ दिया। निगोद से निकलकर मोक्ष की ओर -
पूर्वभव : राजगृही में स्थविर ब्राह्मण और पाँचवें स्वर्ग में देव
हम भगवान महावीर के पूर्व भवों की कथा पढ़ रहे हैं। अति दीर्घकाल तक एकेन्द्रिय पर्याय में तथा विकलत्रय में दुःख के ही अवतार कर-करके अन्त में वह जीव राजगृही में एक ब्राह्मण के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ; उसका नाम स्थविर था। राजगृही....जहाँ से स्वयं कुछ भव पश्चात् धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाला है, - ऐसी उस नगरी में अवतरित वह जीव अभी तो धर्म जानता भी नहीं है; अभी उसने मिथ्यात्व के पाप का भार उतारा नहीं है। राजगृही नगरी की शोभा तो अद्भुत थी; परन्तु वहाँ अवतरित जीव भी धर्म के बिना शोभा नहीं देता था। कोयले को भले ही सुवर्ण मंजूषा में रखो, तो क्या वह वहाँ शोभा देगा? अपने पुण्य-पाप कर्म के अनुसार जीव संसार में अनेक वस्तुएँ ग्रहण करता
और छोड़ता है। घोर परिभ्रमण के पश्चात् बड़ी कठिनाई से मनुष्यभव को प्राप्त वह जीव अभी भी जागृत नहीं हुआ और नास्तिक-पंथ का संन्यासी बनकर मिथ्यात्व में ही पड़ा रहा; अज्ञानपूर्वक कुतप करके वह पाँचवें ब्रह्मस्वर्ग में देव हुआ और दस सागरपर्यंत वहाँ रहा। . . - ___ वहाँ की आयु पूर्ण होने पर वह पुनः राजगृही में अवतरित हुआ। भविष्य में इसी राजगृही से वह धर्मचक्र का प्रवर्तन करनेवाला है। इसी से मानों अव्यक्तरूप