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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-8/१३६ हैं....धन्य है यह धर्म साम्राज्य !....धन्य हमारे धर्मराजा ! और धन्य यह धर्मपालक प्रजा ! महावीर हमारे हैं, हम महावीर के हैं।
बौद्धधर्म के संस्थापक गौतमबुद्ध भी महावीर प्रभु के समकालीन थे; और वे सर्वज्ञ महावीर के प्रशंसक थे। तीस वर्ष तक धर्मचक्र सहित विहार करते-करते अन्तिम दिनों में प्रभु महावीर बिहार प्रान्त की पावापुरी में पधारे; वहाँ का सुन्दर उद्यान खिल उठा। भव्यजीवों का चैतन्य-उद्यान भी सम्यक्त्व आदि धर्म पुष्पों से आच्छादित हो गया। कार्तिक कृष्णा द्वादशी के दिन प्रभु की अन्तिम देशना हुई। (उस अन्तिम देशना के स्थान पर वहाँ एक प्राचीन जिनमन्दिर है और उसमें वीर प्रभु के चरणों की स्थापना है। निर्वाण भूमि के स्थान पर आज ‘पद्मसरोवर' है, उसके प्रवेशद्वार के सामने के भाग में अन्तिम देशना-भूमि के स्थान का होना दिगम्बर जैन-परम्परा में माना जाता है।) __ प्रभु महावीर ने विपुलाचल पर प्रथम देशना में जो परमात्मतत्त्व दर्शाया था, वही परमात्मतत्त्व अन्तिम देशना में पावापुरी में बतलाया। प्रभु की वाणी द्वारा परमशान्त चैतन्यरस का पान करके लाखों-करोड़ों जीव तृप्त हुए । गणधर गौतमदेव भी उत्कृष्ट रूप से वीतरागरस का पान करके केवलज्ञान प्राप्त करने को तत्पर हैं। अहा ! तीर्थंकर प्रभु ने सिद्धपद की तैयारी की तो गणधर देव ने भी अरिहन्त पद की तैयारी की....तथा प्रतिगणधरदेव (सुधर्म स्वामी) श्रुतकेवली होने को तैयार हैं। धन्य भगवन्त ! आपने पंचमकाल में धर्म की अविच्छन्नधारा प्रवाहित रखी।
निर्वाण कल्याणक : महावीर प्रभु अभी पंचमकाल का प्रारम्भ होने में तीन वर्ष आठ मास तथा पन्द्रह दिन का समय शेष था। चौथा काल चल रहा था। प्रभु महावीर का विहार थम गया; वाणी का योग भी मोक्षगमन के दो दिन पूर्व (धन्यतेरस से) रुक गया। प्रजाजन समझ गये कि अब प्रभु के मोक्षगमन की तैयारी है। प्रत्येक देश के राजा तथा लाखों प्रजाजन भी प्रभु के दर्शनार्थ आ पहुँचे। परम वैराग्य का वातावरण छा गया। भले ही वाणी बन्द हो गई थी, तथापि प्रभु की शान्तरस झरती मुद्रा देखकर भी अनेक जीव धर्म प्राप्त करते थे।
गौतम गणधरादि मुनिवर ध्यान में अधिकाधिक एकाग्र हो रहे थे। प्रभु की उपस्थिति में प्रमाद छोड़कर अनेक जीवों ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की