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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१३८ .... __ लोग कहते हैं कि आकाश में पुष्प नहीं होते; परन्तु ऐसा कहने वालों ने प्रभु के श्रीविहार को नहीं देखा। आकाशगामी प्रभु जहाँ भी विचरते हैं वहाँ उनके चरणों के नीचे २२५ अद्भुत कमलों की रचना हो जाती है...मानों आकाश में पुष्प-वाटिका खिली हो ! और प्रभु के प्रताप से भव्यजीवों के चैतन्याकाश में भी रत्नत्रय के पुष्प खिल उठते हैं।
राग अलंकार या वस्त्ररहित होने पर भी उन सर्वज्ञ प्रभु की सुन्दरता का क्या कहना!....और देखो तो सही, जड़-पुद्गल भी मानों प्रभु की आश्चर्यमय सुन्दर सर्वज्ञता की प्रतिस्पर्धा करना चाहते हों, तद्नुसार वे भी जगत में सर्वश्रेष्ठ आश्चर्यजनक पौद्गलिक सुन्दरतारूप से परिणमित हो रहे हैं। एक ओर वीतरागी सर्वज्ञता द्वारा चैतन्य की सर्वोत्तम सुन्दरता तथा दूसरी ओर परम औदारिकता द्वारा शरीर-पुद्गलों की सर्वोत्तम सुन्दरता!....वाह ! चेतन और जड़ दोनों के सौन्दर्य की पराकाष्ठा ! – ऐसी सुन्दरता सर्वज्ञप्रभु के सिवा अन्यत्र कहाँ होगी ?
रे शरीर ! तूने भले प्रभु के सान्निध्य में सर्वोत्कृष्ट सौन्दर्य धारण कर लिया; परन्तु तुझे यह खबर नहीं है कि प्रभु की सर्वज्ञता का चैतन्य सौन्दर्य तो अनन्तकाल तक ज्यों का त्यों बना रहेगा, जबकि तेरा सौन्दर्य तो क्षणभंगुर है। प्रभु तुझे छोड़कर मोक्ष जायें – इतनी ही देर है ! ___ यह सुनकर शरीर मानों हँसकर कहता है - अरे भाई ! इन सर्वज्ञ परमात्मा का क्षणभर का सान्निध्य भी कम है क्या ? सत्पुरुषों के एक क्षणमात्र से सहवास का भी कितना महान फल है,....वह क्या तुम नहीं जानते ? ___ लाखों धर्मात्मा जीवों का परिवार वीर प्रभु के संघ में मोक्ष की साधना कर रहा था। ७०० केवलज्ञानी अरिहन्त भगवन्त वहाँ धर्मसभा में विराजते थे; जो गुणों में प्रभु के समकक्ष थे। तदुपरान्त ऋद्धिधारी १४००० मुनिराज थे; चन्दना सहित ३६००० आर्यिकाएँ थीं; आत्मज्ञान सहित देशव्रतधारी एक लाख श्रावक एवं तीन लाख श्राविकाएँ थीं; देव और तिर्यंच भी प्रभु की वाणी सुनते और सम्यक्त्वादि धर्म प्राप्त करते थे। वहाँ धर्म का साम्राज्य था। उस धर्म-साम्राज्य के नायक थे धर्मराजा भगवान महावीर। आज हम भी उसी महावीर-साम्राज्य के उत्तराधिकारी हैं और प्रभु के मार्ग की साधना करते हुए उस पथ पर चल रहे