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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-8/१४०
आराधना प्रारम्भ कर दी। इसप्रकार कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी तथा चतुर्दशी को दो दिन देवेन्द्रों तथा नरेन्द्रों ने सर्वज्ञ महावीर तीर्थंकर की अन्तिम महापूजा की, मोक्षमहोत्सव का महान मेला लग रहा था....संसार को भूलकर सब मोक्ष की महिमा में तल्लीन थे। चतुर्दशी की रात्रि हुई, अर्धरात्रि भी बीत गई और....पिछले प्रहर (अमावस्या का प्रभात उदित होने से पूर्व) वीरनाथ सर्वज्ञ प्रभु तेरहवाँ गुणस्थान लाँघकर चौदहवें गुणस्थान में अयोगीरूप से विराजमान हुए। यहाँ आस्रव का सर्वथा अभाव एवं संवर की पूर्णता हुई। परमशुक्लध्यान (तीसरा एवं चौथा) प्रगट करके शेष अघाति कर्मों की सम्पूर्ण निर्जरा प्रारम्भ कर दी और क्षणमात्र में प्रभु सर्वज्ञ महावीर मोक्षभावरूप परिणमित हुए....तत्क्षण ही लोकाग्र में सिद्धालयरूप मोक्षपुरी में पहुँचे। आज भी वे सर्वज्ञ परमात्मा वहाँ शुद्ध स्वरूप अस्तित्व में विराज रहे हैं....उन्हें हमारा नमस्कार हो !
इसी विधि से सब कर्मों को हन वे वीरप्रभु सर्वज्ञ बने । इस विधि से दे उपदेश बने वे सिद्ध करूँ मैं नमन उन्हें । श्रमण जिन अरु तीर्थंकरों ने इसी मार्ग का कर सेवन । सिद्धि प्राप्त की करूँ नमन मैं उनको अरु उनके निवृतिपथ को॥
पावापुरी में वीरप्रभु निर्वाण को प्राप्त हुए और कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की अंधेरी रात भी मोक्षकल्याणक के दिव्य प्रकाश में जगमगा उठी....लाखों भक्तों ने करोड़ों दीपकों की आवलियाँ सजाकर प्रभु के मोक्ष कल्याणक का उत्सव मनाया; इसलिये कार्तिक कृष्णा अमावस्या दीपावली पर्व के रूप में प्रसिद्ध हुई।....जो आज भी भारत में प्रसिद्ध है। उस निर्वाण-महोत्सव को २५०० वर्ष पूरे हुए तब (ई.स. १६७४ में) समग्र भारत में अतिभव्य उत्सव मनाया गया था और इस महापुराण का लेखन कार्य भी उस निर्वाण-महोत्सव के निमित्त एवं पू. गुरुदेव श्री कानजीस्वामी की प्रत्यक्ष प्रेरणा से हुआ है। - भगवान महावीर तो निर्वाण को प्राप्त हुए, सिद्ध हुए....अहो ! उन सिद्ध भगवन्तों का अतीन्द्रियज्ञान, इस महापुराण द्वारा मैं उस परमइष्ट पद का गुणगान करता हूँ और मेरा आत्मस्वभाव ऐसा ही है - उसे स्वीकार करके मैं भी प्रभु के मार्ग पर चलता हूँ और इष्टपद प्राप्त करता हूँ। मोक्ष के कारणरूप ऐसे भगवान महावीर को नमस्कार हो!