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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१३२ अहा ! गौतम गणधर भी जिनकी स्तुति करते हों उन सर्वज्ञ महावीर की महिमा का क्या कहना; हे महावीर देव ! आपके गुण इतने अधिक महान हैं कि यद्यपि छद्मस्थ जीव उनकी स्तुति करते हुए थक जाता है, तथापि मैं आपके गुणों के प्रति सच्ची महिमा के कारण आपकी स्तुति करता हूँ। प्रभो ! आपके अन्तर में उदित हुआ केवलज्ञान सूर्य हानि-वृद्धि से रहित स्थिर है; वह सूर्य की भाँति आताप देनेवाला नहीं, किन्तु आताप हरनेवाला है। आपकी वीतरागी सर्वज्ञता की अचिन्त्य महिमा का चिन्तन हमें राग से भिन्न ज्ञानस्वभावी आत्मा की अनुभूति कराता है....और सम्यक्त्व सहित महान आनन्द प्रगट होता है। प्रभो ! आपकी यथार्थ प्रतीति का यह महान फल है।
धन्य सर्वज्ञदेव! आपका प्रभाव कोई अद्वितीय है। स्वानुभूति के बिना आपके अचिन्त्य गुण चिन्तन में नहीं आ सकते। जहाँ आपके अचिन्त्य गुणों को ज्ञान में लेकर उनका चिन्तन करते हैं वहाँ हमारा ज्ञान वैसे आत्मगुणों में एकाग्र हो जाता है और विकल्पों से परे कोई परमशान्त चैतन्यरस अनुभव में आता है। यही है आपकी परमार्थ स्तुति !....यही है आपका पावन पंथ !
जो इन्द्रियों को जीतकर, जाने विशेष निजात्म को। निश्चय विषं स्थित साधुजन, कहते जितेन्द्रिय उनहि को। (इसप्रकार सर्वज्ञस्वभावी अतीन्द्रिय आत्मा की अनुभूति ही सर्वज्ञ की परमार्थ स्तुति है।)
वेसर्वज्ञ महावीर कोई ‘अन्तिम तीर्थंकर' नहीं थे। जिसप्रकार जगत में मोक्ष प्राप्त करने वाले जीवों का तथा मोक्षमार्ग का कभी अन्त नहीं है, उसीप्रकार एक के बाद एक अनन्त तीर्थंकरों की परम्परा अनन्त काल तक चलती ही रहेगी। इस चौबीसी के प्रथम और अन्तिम (ऋषभदेव एवं महावीर) तीर्थंकरों के बीच तो असंख्यात् वर्षों का अन्तर था; परन्तु इस चौबीसी के अन्तिम और आनेवाली चौबीसी के प्रथम (महावीर एवं महापद्य) तीर्थंकरों के बीच मात्र ८४००० वर्षका ही अन्तर है अर्थात् महावीर प्रभु के मोक्षगमन पश्चात् ८४००० वर्ष में ही राजा श्रेणिक का आत्मा महापद्म तीर्थंकर होंगे। धन्य मार्ग ! ___ इधर कौशाम्बी नगरी में कुमारी चन्दनबाला वीर प्रभु के केवलज्ञान की प्रतीक्षा करते हुए वैराग्यमय जीवन बिता रही है। बैशाख शुक्ला दशमी के सायंकाल