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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१३३ आकाश में अचानक हजारों-लाखों देव-विमान देखकर उसे आश्चर्य हुआ....वे देव महावीर भगवान का जय-जयकार करते हुए जा रहे थे। चन्दना तुरन्त समझ गई कि मेरे महावीर को केवलज्ञान हो गया है...और उसी का उत्सव मनाने यह देवगण जा रहे हैं। अहा ! मेरे महावीर अब परमात्मा बन गये ! इसप्रकार चन्दना के हर्षानन्द का पार नहीं है। सारे नगर में आनन्द के बाजे बजवाकर उसने प्रभु के केवलज्ञान का मंगल उत्सव मनाया। पश्चात् बड़ी बहिन मृगावती को साथ लेकर वह राजगृही- वीर प्रभु के समवसरण पहुँची....और उन वीतरागी वीर परमात्मा को देखकर स्तब्ध रह गई। राजकुमार महावीर ने जो आत्मानुभूति प्राप्त कराई थी, उसका उसे स्मरण हुआ और तुरन्त वैसी अनुभूति में पुन: पुन: उपयोग लगाकर अन्तर की विशुद्धता को बढ़ाया। प्रभु की स्तुति की, गौतम स्वामी आदि मुनिवरों को वन्दन किया और प्रभु चरणों में आर्यिका के व्रत धारण किये....कोमल केशों का लोंच किया, राजसी परिधान छोड़ दिये और एक श्वेत परिधान में वैराग्य से सुशोभित हो उठी। अभी कुछ दिन पूर्व भी सिर मुंडाए बन्धन में पड़ी थी....और आज स्वेच्छा से सिर मुंडकर वह मोक्षमार्ग में प्रयाण कर रही है।
कहाँ वह कारागृह और कहाँ यह समवसरण – धर्मसभा ! उन दोनों संयोगों से विभक्त तथा निजगुणों से एकत्व - ऐसे निजस्वरूप का वह अनुभवन करती थी। वीर प्रभु की धर्मसभा में विद्यमान ३६००० आर्यिकाओं के संघ की वे चन्दनामाता अधिष्ठात्री थीं। कहाँ भील द्वारा अपहरण और कहाँ वीर प्रभु की शरण ! कहाँ वेश्या के हाथों बाजार में बिकने का प्रसंग और कहाँ ३६००० आर्यिकाओं में अधिष्ठात्री-पद ! वाह रे उदयभाव तेरा खेल ! परन्तु धर्मात्मा का चैतन्यभाव अब तेरे विचित्र जाल में नहीं फँसेगा, वह तो सर्व प्रसंगों में तुझसे अलिप्त अपने चैतन्यभाव में ही रहेगा....और मोक्ष को साधेगा। ___ भारत में २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर से पूर्व २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का शासन चल रहा था; अहिंसाधर्म की महिमा फैल रही थी। भगवान महावीर ने भी वह बात प्रचारित की - कि राग से भिन्न आत्मा के अनुभव द्वारा ही अहिंसाधर्म का पालन हो सकता है; क्योंकि राग स्वयं हिंसा है, इसलिये जो जीव जितना राग में वर्तता है उतना वह हिंसा में ही वर्त रहा है। जिसमें राग नहीं है ऐसे ज्ञान की अनुभूति वह परम अहिंसाधर्म है और उससे मोक्ष