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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१३१ परमात्मा की वाणी का प्रसाद पंचमकाल के भव्यजीवों के लिये संग्रहीत करके रख दिया, जो प्रसाद आज हमें गुरु-परम्परा से प्राप्त हो रहा है। ___ अहो वीरनाथ! आपका महान उपकार है; आपके गणधरों का तथा वर्तमान पर्यंत आपकी वाणी द्वारा स्वानुभवपूर्वक मोक्षमार्ग को प्रवाहित रखनेवाले वीतरागी सन्तों का भी महान उपकार है कि जिनके प्रताप से आज ऐसे दुःषम काल में भी हमें आपका मोक्षमार्ग मिल रहा है। वाह, धन्य वीर का शासन....और धन्य उस शासनधारा को अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रखने वाले सन्तों को !
पश्चात् इन्द्रभूति-गौतम के साथ उनके दो भाई महान विद्वान अग्निभूति, वायुभूति तथा अन्य आठ विद्वान अपने सैकड़ों शिष्यों सहित वीर प्रभु के समवसरण में आये और रत्नत्रयधर्म प्राप्त करके प्रभु के गणधर बने। महावीर तीर्थंकर के कुल ११ गणधर थे। समवसरण की अद्भुत दिव्यता के मध्य रहकर भी निर्मोहरूप से विराजमान वर्धमान सर्वज्ञ सचमुच अलौकिक थे। अहा ! कैसी शान्तमुद्रा ! कैसी वीतरागता ! और कैसा ज्ञानतेज ! वह मुद्रा देखते ही जीवों की शंकाएँ निर्मूल होकर आत्मा के परमस्वरूप की प्रतीति होती थी। वाह ! उन अरिहन्तों की महिमा का क्या कहना, कि जिनका स्वरूप जानने से आत्मा के शुद्धस्वरूप का ज्ञान तथा सम्यग्दर्शन होता है।
इन्द्रभूति का अद्भुत परिवर्तन देखकर इन्द्र को अपार आनन्द हुआ।....और ब्राह्मण का रूप छोड़कर अपने असली इन्द्र स्वरूप में गौतम गणधर के चरणों में वन्दन किया।
इन्द्रभूति ने परम गम्भीरता से कहा हज ! अब मैंने जान लिया है कि तुम्हीं ब्राह्मण का वेश धारण करके युक्ति पूर्वक मुझे यहाँ समवसरण में लाये हो, यहाँ आने से मेरा कल्याण हुआ है; मेरी पराजय नहीं, किन्तु विजय हुई है और उसमें मुझे तीन रत्न तथा चार ज्ञान प्राप्त हुए हैं। पहले मैं मिथ्यात्व से पराजित था, अब मैंने मिथ्यात्व को पराजित करके अपने अपार निजवैभव को जीत लिया है। प्रभु महावीर अब मात्र तुम्हारे नहीं, मेरे भी परमगुरु हैं।
शत-इन्द्र-वंदित त्रिजग-हित, निर्मल मधुर उपदेश दे। निःसीमगुण जो धारते, जितभव नमूं जिनराज को॥