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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६ / १३०
हे वत्स ! तुम्हारे गुरु कौन हैं और कहाँ विराजते हैं ? मैं उनके साथ इस श्लोक पर चर्चा करूँगा।
बस, इन्द्र तो यही चाहते थे । उन्होंने कहा - यह तो बड़े आनन्द की बात है महाराज ! मेरे साथ चलिये ! मेरे गुरु सर्वज्ञ-महावीर हैं और वे राजगृही में विपुलाचल पर विराजते हैं। और इन्द्र के साथ इन्द्रभूति समवसरण की ओर चल पड़े । वाह रे इन्द्रभूति ! जो तत्त्व अपनी समझ में नहीं आया उसे समझने की कितनी गहरी जिज्ञासा है। पाँच सौ शिष्यों के साथ समवसरण की ओर चलते हुए गौतम का अभिमान क्षण-क्षण गल रहा है; उनका अन्तर स्वीकार कर रहा है कि जिस श्लोक का अर्थ मैं नहीं जान पाया, उसे जानने वाले गुरु- महावीर कोई असाधारण ज्ञानवान होंगे ! इसप्रकार उनके अन्तर में हार-जीत की नहीं, किन्तु अपने ज्ञान
समाधान की मुख्यता है । उनकी शंका का तथा अज्ञान का अन्त अब निकट ही है; यहाँ अपूर्वज्ञान की तैयारी है तो सामने अपूर्ववाणी की, - उत्कृष्ट उपादान
१.
निमित का कैसा सुमेल है ।
ज्यों ही मानस्तंभ के निकट आये और प्रभु का वैभव देखा, त्यों ही उनका मान विगलित हो गया.... उन्होंने महावीर को देखा और देखते ही सर्वज्ञ की तथा जीव के अस्तित्त्व की प्रतीति हो गई। अहा ! ऐसे वैभव में भी प्रभु वीतरागरूप से विराज रहे हैं ! कैसी शान्त है उनकी दृष्टि ! उनके आत्मा की दिव्यता का क्या कहना ! अवश्य ही यह सर्वज्ञ हैं । इसप्रकार गौतम को प्रभु के प्रति परम सम्मान का भाव जागृत हुआ और जीव के अस्तित्त्व सम्बन्धी उनकी सूक्ष्म शंकाएँ दूर हो गईं.. ....मान का स्थान ज्ञान ने लिया। निःशल्य हुए गौतम ने विनयपूर्वक अपने पाँच सौ शिष्यों सहित प्रभु का मार्ग अंगीकार किया और नम्रीभूत होकर प्रभु की स्तुति करने लगे
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
अहा ! कैसा आनन्ददायी होगा वह दृश्य ! वीर प्रभु की दिव्यवाणी छूटती होगी और गौतम गणधर उसे झेलते होंगे। प्रभु की वाणी सुनकर तत्क्षण गौतमइन्द्रभूति चार ज्ञानधारी श्रुतकेवली हुए और बारह अंगरूप श्रुत की रचना द्वारा