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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१२६ उसने अवधिज्ञान से देखा कि तीर्थंकर देव के धर्मोपदेश के समय जिसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है - ऐसा कोई गणधर इस सभा में उपस्थित नहीं है। वह गणधर होने वाला जीव तो इस समय वेद-वेदान्त में पारंगत महापण्डित के रूप में गौतमग्राम (गुणावा नगरी) में है - ऐसा जानकर इन्द्र ने उन गौतम को समवसरण में लाने की युक्ति बनायी। स्वयं एक ठिगने ब्राह्मण का रूप धारण करके गौतम के पास पहुँचे और विनयपूर्वक कहा – हे स्वामी ! मैं महावीर तीर्थंकर का शिष्य हूँ; मुझे एक श्लोक का अर्थ समझना है, परन्तु मेरे गुरु ने तो अभी मौन धारण किया है, इसलिये आपके पास उस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।
इन्द्रभूति ने प्रेम से कहा - बोलो वत्स ! कौन-सा श्लोक है तुम्हारा ? ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने कहा – सुनिये महाराज ! त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीव षट्काय-लेश्या। पंचान्ये चास्तिकायाः व्रतसमितिगति ज्ञान-चारित्रभेदाः॥ इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहिते प्रोक्तमर्ह द्भिरीशैः । प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः॥
श्लोक बोलकर इन्द्र ने कहा-हे देव! इसमें तीनकाल, छहद्रव्य, नवपदार्थ, पंचास्तिकाय आदि जिन्हें जानना मोक्ष का मूल है वे क्या हैं ? उन्हें समझाइए ?
महान विद्वान इन्द्रभूति विचार में पड़ गये कि यह श्लोक तो मैं प्रथम बार सुन रहा हूँ। इसमें तो जीवादितत्त्वों का वर्णन है, परन्तु मेरे मन की गहरायी में तो अभी 'जीव' के अस्तित्व की ही शंका है।
तब फिर मैं इस ब्राह्मण को उसका स्वरूप कैसे समझाऊँ ?....अवश्य ही यह श्लोक कहने वाले इसके गुरु कोई असाधारण एवं जीवतत्त्व के ज्ञाता होना चाहिये। इन्द्रभूति बहुत मंथन करने के बाद भी श्लोक का भाव नहीं समझ सके। अहा ! सर्वज्ञमार्ग के रहस्य को एकान्त-मिथ्यावादी कहाँ से समझ सकेंगे ? उसने विचार किया - अरे, मैं समस्त वेद-पुराणों का ज्ञाता हूँ; परन्तु छह द्रव्य क्या हैं, पाँच अस्तिकाय क्या हैं, पाँच ज्ञान कौन-से हैं? – यह तो मैंने कभी सुना ही नहीं है, यह तो इस ब्राह्मण के सामने मेरी प्रतिष्ठा जाने का प्रसंग आया। क्यों न इसके गुरु के पास जाऊँ और देखू कि वह कौन है ? ऐसा सोचकर इन्द्रभूति ने कहा -