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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१२८ को प्राप्त हुए। इसप्रकार तीर्थंकर भगवान महावीर ने रत्नत्रयतीर्थ का प्रवर्तन किया.... धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। ___ गौतमस्वामी रत्नत्रयसंयुक्त मुनियों के नायक बने, उन्हें उसी क्षण अप्रमत्तदशा उदित हो उठी; मन:पर्ययज्ञान हुआ; वे बारह अंग के ज्ञाता श्रुतकेवली हुए; अनेक महान लब्धियाँ उनके प्रगट हो गईं। उन्हें वचनलब्धि तो ऐसी अपूर्व प्रगट हुई कि करोड़ों-अरबों श्लोक धीर-गम्भीर, मधुर, स्पष्ट स्वर में दो घड़ी में बोल सकते थे; करोड़ों मनुष्य और तिर्यञ्च एकसाथ भिन्न-भिन्न भाषायें बोल रहे हों, तब भी प्रत्येक की बात अलग-अलग स्पष्ट समझ सकते थे। बुद्धिलब्धि, औषधलब्धि, रसलब्धि, अक्षयलब्धि, विक्रियालब्धि....आदि अनेक लब्धियाँ प्रगट होने पर भी वे जानते थे कि इन सर्व लब्धियों की अपेक्षा आत्मानुभूति की लब्धि कोई अचिन्त्य सामर्थ्यवान है और सर्वज्ञ की केवलज्ञानलब्धि के समक्ष तो ये समस्त लब्धियाँ अनन्तवें भाग की हैं। इसप्रकार अत्यन्त निर्मानतापूर्वक वे तीर्थंकर महावीर के प्रथम गणधर बने और हाथ जोड़कर प्रभु की स्तुति की -
शत-इन्द्र वंदित बिजगहित, निर्मल मधुर उपदेश दे। निःसीम गुण जो धारते, जितभव नमूं जिनराज को॥ सुर-असुर-नरेन्द्र वंद्य को, प्रविनष्ट घातीकर्म को। प्रणमन करूँ मैं धर्मकर्ता, तीर्थ श्री महावीर को। इन्द्रभूति-गौतम के अतिरिक्त उनके दो भाई अग्निभूति और वायुभूति तथा शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकम्पन, अचल, मेदार्य एवं प्रभास - ऐसे कुल ११ गणधर महावीर प्रभु के थे। अब, गौतमस्वामी वीर प्रभु के समवसरण में अचानक कैसे आ पहुँचे ? उसकी रोमांचक कथा सुनो - ___ ऋजुकुला नदी के तट पर वीर प्रभु को केवलज्ञान हुआ, समवसरण की रचना हुई, किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिरी; विहार करते-करते प्रभु राजगृही में विपुलाचल पर पधारे। ६६ दिन बीत जाने पर भी भगवान का उपदेश क्यों नहीं हुआ ? भगवान तो तीर्थंकर हैं, इसलिये दिव्यध्वनि के उपदेश द्वारा तीर्थ प्रवर्तन हुए बिना नहीं रह सकता; किन्तु इतना विलम्ब क्यों ? भव्यजीव वाणी सुनने के लिये प्यासे चातक की भाँति आतुर हो रहे हैं। अन्त में इन्द्र का धैर्य समाप्त हुआ;