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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/८९
ने मिथ्या मार्ग छोड़ दिया और जिनधर्म धारण किया - ऐसा समझ कर जिनदत्त ने नीली की शादी उसके साथ कर दी ।
शादी का प्रयोजन सिद्ध होने पर सागरदत्त फिर से कुमार्गगामी बन गया, उसने नीली को भी उसके पिता के घर जाने से रोका....... इससे जिनदत्त सेठ को बहुत पश्चाताप हुआ और उसने अपनी पुत्री को मानो कुएँ में डाल दिया हो - ऐसा उसे दुःख हुआ ।
सच है, पुत्री की विधर्मी के साथ शादी कर देने से अच्छा है कि उसे कुयें में डाल देना; क्योंकि वह उससे भी अधिक खराब है। क्योंकि मिथ्यात्व के संस्कार से अनन्त भवों का बुरा होता है । जो अपनी पुत्री को विधर्मियों को देते हैं, वे उनका बहुत बड़ा अहित करते हैं, उन्हें जिनधर्म की श्रद्धा नहीं होती । नीली को भी इस बात का दुःख हुआ, परन्तु वह स्वयं दृढ़ता से जिनधर्म का पालन करती रही । सच है, जिसे जिनधर्म का सच्चा रंग लगा है, उसे किसी भी प्रसंग में उसका उत्तम संस्कार नहीं छूटता । वह भले प्राण त्याग दे, परन्तु जिनधर्म को नहीं छोड़ता ।
नीली के ससुर समुद्रदत्त ने विचार किया - "हमारे गुरुओं के संसर्ग से नीली अपना जिनधर्म छोड़ देगी और हमारा धर्म अंगीकार कर लेगी ।" ऐसा विचार करके उसने अपने मत के भिक्षुओं को भोजन के लिये घर में निमंत्रित किया, परन्तु नीली ने युक्ति से उनकी परीक्षा करके उन्हें मिथ्या ठहराया और अपने जिनधर्म में दृढ़ रही । अपने गुरुओं का ऐसा अपमान होने पर समुद्रदत्त के कुटुम्बी- जन नीली के प्रति द्वेषबुद्धि रखने लगे, उसे अनेक प्रकार से परेशान करने लगे और उसकी ननदों ने तो उसके ऊपर परपुरुष के साथ व्यभिचार का कलंक तक लगा दिया और यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध करने लगीं ।
अरे रे, निर्दोष शीलवती नीली के ऊपर पाप कर्म के उदय से ऐसे बड़े दोषों का झूठा कलंक लगा । नीली तो धैर्य पूर्वक जिनमन्दिर में भगवान के पास पहुँच गई और जब तक यह कलंक दूर नहीं होगा, तब तक मैं भोजन नहीं करूँगी तथा अनशन व्रत धारण करूंगी- ऐसी प्रतिज्ञा करके जिनेन्द्र देव के सामने बैठ गई और अन्तरंग में जिनेन्द्र देव के गुणों का स्मरण करके उनका चिन्तवन करने लगी ।