SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मचर्य व्रत ब्रह्मचर्य नाम के चौथे अणुव्रत धारी श्रावक को परस्त्री. का सर्वथा त्याग होता है । अपनी पत्नि के अलावा अन्य समस्त स्त्रियों को जो माता, बहिन और पुत्री के समान जानता है, उसे स्थूल ब्रह्मचर्य होता है। इस ब्रह्मचर्य का सेवन करके जीवों को विषयों से विरक्त होना चाहिये। बुद्धिमान पुरुषों को परस्त्री का एक क्षण भी संसर्ग नहीं करना चाहिये। अरे, इस लोक में प्राणों का हरण करने वाली ऐसी क्रोधित सर्पिणी का आलिंगन करना अच्छा नहीं । यह महानिंद्य काम है और महादुःख देने वाला है । मूर्ख लोगों को परस्त्री की तो प्राप्ति हो या न हो, परन्तु परस्त्री की इच्छा और चिन्ता से ही उसे महान पाप लगता रहता है, उसे हमेशा मरण की आशंका लगी रहती है । उस मूर्ख की बुद्धि नष्ट हो जाने के कारण, परस्त्री सेवन में दुःख होने पर भी उसमें उसे सुख लगता है और उसका चित्त हमेशा कलुषित रहता है। - अरे रे ! विषयों तथा कषायों में मग्न जीवों को शान्ति कहाँ से हो ? परस्त्री सेवन के पाप से उस पापी जीव को तो नरक में अग्नि से धगधगाती अत्यन्त लाल लोहे की पुतली के साथ दोनों हाथ फैला कर आलिंगन करना पड़ता है, उससे वह जल जाता है और महा दुःख पाता है। विषयों के सेवन की कामाग्नि कभी शान्त नहीं होती, वह तो ब्रह्मचर्य रूपी शीतल जल से ही शान्त होती है । जो अधम पुरुष कामज्वर रूपी रोग को परस्त्री रूपी औषधि से मिटाना चाहता है, वह तो अग्नि में तेल डालने जैसी मूर्खता करता है। अरे, हलाहल जहर खा लेना अच्छा, समुद्र में डूब जाना अच्छा, परन्तु शील बिना मनुष्य का जीवन अच्छा नहीं होता । इसलिए हे भव्य! हृदय में वैराग्य धारण करके, शीलव्रत से तू अपनी आत्मा को सुशोभित कर और परस्त्री का सर्वथा त्याग कर ।
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy