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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/८४ टापू से टकरा कर फट गया। ठीक ही है कि बिना पुण्य के कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। - समुद्रदत्त भाग्य से बच कर निकल तो आया, लेकिन सारा धन समुद्र में डूब गया । जब वह श्रीभूति पुरोहित के पास रखे हुए अपने रत्न लेने पहुंचा तो श्रीभूति ने उसे दुतकार दिया और रत्नों से इंकार कर दिया । बेचारा समुद्रदत्त तो श्रीभूति की बातें सुन कर हतबुद्धि हो गया। साथ ही श्रीभूति ने नौकरों द्वारा समुद्रदत्त को घर से बाहर निकलवा दिया। - नीतिकार ने ठीक ही लिखा है-"जो लोग पापी होते हैं, जिन्हें दूसरों के धन की चाह होती है, ऐसे दुष्ट पुरुष ऐसा कौनसा बुरा काम है, जिसे वे लोभ के वश होकर न करते हों ?"
श्रीभूति ऐसे ही पापियों में से एक था । पापी श्रीभूति से ठगाया गया बेचारा समुद्रदत्त सचमुच पागल हो गया- "श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता"- ऐसा दिन-रात चिल्लाने लगा।
. एक दिन महारानी सोमदत्ता के मन में विचार आया कि इसमें कुछ अन्य ही वास्तविकता हो सकती है। उसने महाराज से कहा-"आप उसे बुला कर पूछिये कि वास्तव में उसके ऐसे चिल्लाने का रहस्य क्या है ?"
रानी के कहे अनुसार राजा ने समुद्रदत्त को बुला कर सब बातें पूछीं। समुद्रदत्त ने यथार्थ घटना कह सुनाई । सुन कर रानी ने इसका भेद खुलवाने का विचार मन में ठान लिया ।
. दूसरे दिन रानी ने पुरोहितजी को अपने अन्तःपुर में बुलाया। आदर-सत्कार करने के बाद रानी ने उससे इधर-उधर की बातें की, जिससे पुरोहितजी प्रसन्नता का अनुभव करने लगे । पुरोहितजी को खुश देख कर रानी ने कहा- “सुनती हूँ कि आप पासे खेलने में बड़े चतुर और बुद्धिमान हैं । मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि आपके