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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/७१ इसलिए हे राजन् ! इस पर्व के दिन में अपने सर्व पापों का नाश करने के लिए मैं किसी भी जीव को नुकसान नहीं पहुँचाता । अब आप जो सही समझें, वह करें ।" [ यहाँ इस प्रकार के आंशिक अहिंसा के पालन करने में भी यमपाल की जो श्रद्धा थी, इसे समझने के लिए उसका उदाहरण लेना। इसी श्रद्धा की दृढ़ता के कारण वह पूर्ण अहिंसा के पालन करने की तरफ बढ़ सका, इसलिए शास्त्रों में उसका उदाहरण लिया है ।। अहिंसा का एक अंश भी जिसे अच्छा लगता है और जो प्राणान्त होने तक भी उसका पालन नहीं छोड़ता, उसे अव्यक्तपने पूर्ण अहिंसा रूप वीतराग भाव अच्छा लगा है और उसकी श्रद्धा का बीज यहीं बोया गया है ।] इस प्रकार यमपाल ने अपने व्रत की बात कही, परन्तु राजा को यमपाल की बात पर विश्वास नहीं बैठा, उन्हें ऐसा लगा- “ऐसा उत्तम अहिंसा व्रत इस अस्पृश्य चाण्डाल से कैसे होगा ?" ऐसा विचार करके उन्होंने कोतवाल को आदेश दिया- “यह राजकुमार और चाण्डाल दोनों की मिली-भगत है, दोनों दुष्ट हैं, अत: इन दोनों का रस्सी से बाँध कर मगरमच्छ से भरे हुए भयंकर सरोवर में फेंक दो।" “राजा की यह बात सुन कर भी यमपाल अपने व्रत में दृढ़ रहा। उसने ठान लिया कि प्राण चले जायें तो भी व्रत का भंग नहीं करूँगा।" इस प्रकार मरण का भय छोड़ कर निर्भय सिंह की तरह वह व्रत में दृढ़ रहा और उत्तम भावना भाने लगा...... वीतरागी अहिंसा की तरफ उसका परिणाम और अधिक उल्लसित होने लगा। ... इधर कोतवाल ने राजा की आज्ञा के अनुसार दोनों को बाँध कर सरोवर में फेंक दिया । पापी राजपुत्र को तो मगरमच्छ खा गया, • परन्तु व्रत के माहात्म्य से प्रभावित होकर यमपाल चाण्डाल को देवो
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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