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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/६५
रोगादि दूर करने के हेतु से भी जो मधु आदि का उपयोग करता है, वह जीव महापाप से नरकादि दुर्गति में जाता है ।
प्राणों का त्याग हो जाय तो भले हो जाय तथा चाहे जैसा भरे हुए पाँच उदुम्बर फलों ! धर्म की प्राप्ति के लिए
दुष्काल होने पर भी असंख्य त्रस जीवों से का भक्षण करना उचित नहीं है । हे मित्र तू उन सभी का त्याग कर !
बारह व्रतों के मूल कारण आठ मूलगुण हैं और ये बारह व्रतों के पहले धारण किये जाते हैं, इसलिए इन्हें श्रावक के मूलगुण कहते हैं, ये स्वर्गादि के भी कारण हैं ।
द्यूत-क्रीड़ा, माँस, शराब, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री— इन सातों का सेवन महापाप रूप है और ये सात नरकों के सात द्वार हैं, इसलिए हे भाई ! इन सात पाप - व्यसनों को तू सर्वथा छोड़ दे ।
पाप - राजा ने अपना राज्य पक्का करने के लिए और अपने शत्रुओं का नाश करने के लिए सात व्यसन रूपी सेना रखी है । अतः “हे मुमुक्षु ! तू उन्हें वश कर ! तेरे सम्यक्त्व और ज्ञान-वैराग्य के बल से उन्हें नाश कर दे। सम्यक्त्व रूपी सुदर्शन चक्र और आठ अंग तथा पाँच व्रत रूपी तेरी सेना से सप्त व्यसनों की सेना को नष्ट करके अष्ट मूलगुणों का धारक बन जा ।"
बिना विवेक के श्रद्धा अंधी होती है। गुण-दोष का निर्णय करना विवेक का काम है। श्रद्धा का स्वभाव तो समर्पण का है, जिसके प्रति हो गई, उसके प्रति सर्वस्व समर्पण पर तुल जाती है। विवेकहीन श्रद्धा अस्थान या कुस्थान में लगे तब तो हानि करती ही है, यदि सुस्थान में भी लगे तो भी लाभ नहीं करती, क्योंकि सत्य-असत्य और गुण-दोष का निर्णय करना उसका काम नहीं है। - सत्य की खोज, पृष्ठ ८१
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