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श्री सकलकीर्ति श्रावकाचार : अध्याय १२ से १६ श्रावक की धर्मसाधना
(पाँच अणुव्रतों का उदाहरण सहित वर्णन)
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जैन सद्गृहस्थ श्रावक का जीवन कैसे सुन्दर धार्मिक आचरण से शोभित होता है, उसका यह वर्णन है । उसके मूल कर्त्तव्य रूप सम्यक्त्व की महिमा तथा उसके लिए सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के स्वरूप की पहचान कैसे होती है ? - यह बताया जा चुका है । अब सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् श्रावक के अहिंसादि व्रत कैसे होते हैं ? उसका वर्णन तथा उदाहरण स्वरूप उनकी कहानियाँ भी आप यहाँ पढ़ना । श्री सकलकीर्ति श्रावकाचार (अध्याय १२ से १६) में से यह दोहन दिया है ।
समकित सहित आचार ही संसार में इक सार है। जिनने किया आचरण उनको नमन सौ-सौ बार है ।। उनके गुणों के कथन से गुण-ग्रहण करना चाहिये। अरु पापियों का हाल सुन कर पाप तजना चाहिये ।।
सम्यग्दर्शन के बाद श्रावक के ग्यारह प्रतिमाओं रूप धर्म स्थानों में सर्वप्रथम दर्शन-प्रतिमा है । सम्यक्त्व सहित जिसने अतिचार रहित आठ मूलगुणों को धारण किया है और जिसे सात व्यसनों का त्याग है, उसे जिनेन्द्र देव दर्शन - प्रतिमा युक्त दार्शनिक श्रावक कहते हैं ।
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मद्य - माँस- मधु तथा पाँच उदुम्बर फलों का निरतिचार त्यागये अष्ट मूलगुण हैं । अण्डा भी पंचेन्द्रिय जीव का माँस ही है ।
माँस को छोड़े बिना जो धर्म की इच्छा करता है, वह मूर्ख.
जीव आंख के बिना नाटक देखने के इच्छुक अन्धे के समान है ।