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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/६०
सम्यग्दर्शन सहित जीव विशेष ज्ञान-व्रतादि बिना भी इन्द्र तीर्थंकर आदि विभूति पाते हैं ।
ज्ञान - चारित्रादि का मूल सम्यग्दर्शन है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । उसके बिना ज्ञान और चारित्र अज्ञान और अचारित्र हैं, अत: मोक्ष के लिए निरर्थक हैं ।
व्रत - चारित्र के बिना तथा विशेष ज्ञान के बिना अकेला सम्यक्त्व भी अच्छा है, प्रशंसनीय है, परन्तु मिथ्यात्व रूपी जहर से भरे हुए व्रतदानादि अच्छे नहीं हैं ।
सम्यक्त्व बिना जीव सच में पशु समान है, जन्मान्ध के समान वह धर्म-अधर्म को जानता नहीं ।
दुःखों से भरे हुए नरक में भी सम्यक्त्व सहित जीव शोभायमान होता है, उसके बिना जीव देव लोक में भी नहीं शोभता, क्योंकि नरक का जीव तो सारभूत सम्यक्त्व के माहात्म्य के कारण वहाँ से निकल कर लोकालोक को प्रकाशित करने वाला तीर्थंकर हो सकता है । लेकिन मिथ्यात्व के कारण भोगों में तत्पर देवलोक का जीव आर्तध्यान से मरकर स्थावर योनि में जाता है ।
तीन काल या तीन लोक में सम्यक्त्व के समान अन्य कोई इस जीव का हितकारी नहीं है । जगत में, जीव का सम्यक्त्व ही एक परम हितकारी है ।
सम्यक्त्व के अलावा दूसरा कोई जीव का मित्र नहीं, दूसरा कोई धर्म नहीं, दूसरा कोई सार नहीं, दूसरा कोई हित नहीं, दूसरा कोई मातापितादि स्वजन नहीं या दूसरा कोई सुख नहीं । मित्र-धर्म-सार-हितस्वजन - सुख - ये सभी सम्यक्त्व में समा जाते हैं ।
सम्यक्त्व से अलंकृत अस्पृश्य मनुष्य भी देवों जैसा पूज्य है, परन्तु सम्यक्त्व के बिना जीव त्यागी होने पर भी पग-पग पर निन्दनीय है ।
एक बार सम्यक्त्व को अन्तर्मुहूर्त मात्र के लिए ग्रहण करके