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श्री सकलकीर्ति श्रावकाचार : अध्याय ११
सम्यक्त्व-महिमा
हे वत्स ! तुम परम भक्ति से सम्यक्त्व को भजो !
श्री सकलकीर्ति श्रावकाचार के इस दोहन में सम्यक्त्व के आठ अंगों की कहानियाँ आपने पढ़ीं । अब उसके : ग्यारहवें अध्याय में १०८ श्लोकों द्वारा सम्यक्त्व की परम : महिमा बता कर उनकी आराधना करने की प्रेरणा दी जाती .: है, उसका दोहन आप पढ़ें।
वीतराग जिन-धर्म का सेवन छोड़ कर मिथ्या धर्म के सेवन से जो मूढ़ जीव आत्म-कल्याण की इच्छा करता है, वह कैसा है ? वह जीवन जीने के लिए जहर खाने वाले व्यक्ति के समान मूर्ख होता है। - बुद्धिमान अल्प क्षयोपशम ज्ञान को पाकर उसका मद नहीं करता। अरे, अंग-पूर्व के महान श्रुत-धारकों के सामने मेरे इस अल्प ज्ञान की क्या तुलना है ? - अरे, क्षणभर में नष्ट होने वाले इस शरीर बल का अभिमान क्यों? .
विचित्र अद्भुत सम्यग्दर्शन-कला के सामने लौकिक सुन्दर लेखनादि कला का अभिमान करना अशुभ है ।
. जिस प्रकार मलिन दर्पण में मुँह नहीं दिखता, उसी प्रकार मोह से मलिन मिथ्या श्रद्धा में आत्मा का सच्चा रूप नहीं दिखता, मुक्ति
का मुँह उसमें नहीं दिखता । ' जिस प्रकार निर्मल दर्पण में मनुष्य अपने रूप का अवलोकन
करता है, उसी प्रकार उसके सम्यक्त्व रूपी निर्मल दर्पण में धर्मी जीव मुक्ति का मुँह देखता है, अपना सच्चा रूप देखता है ।