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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/४९ .. कर सकते हैं, परन्तु वे तो अपनी आत्म-साधना में ऐसे लीन हैं कि उन्हें अपनी लब्धि की भी खबर नहीं और मुनियों के ऊपर आये हुए उपसर्ग की भी खबर नहीं ।” .... यह सुन कर क्षुल्लकजी के मन में उपसर्ग दूर करने हेतु विष्णुकुमार मुनिजी की सहायता लेने की बात आई । आचार्य श्री की आज्ञा लेकर वे क्षुल्लकजी तुरन्त ही विष्णुकुमार मुनि के पास आये और उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बता कर प्रार्थना की- “हे नाथ ! आप विक्रिया लब्धि से यह उपसर्ग तुरन्त दूर करें ।' यह बात सुनते विष्णुकुमार मुनि के अन्तरंग में सात सौ मुनियों के प्रति परम वात्सल्य उमड़ आया । विक्रिया लब्धि को प्रामाणिक करने के लिए उन्होंने अपना हाथ लम्बा किया तो मानुषोत्तर पर्वत प्रर्यन्त सम्पूर्ण मनुष्य लोक में वह लम्बा हो गया । वे तुरन्त हस्तिनापुर आ पहुँचे और अपने भाई को- जो हस्तिनापुर के राजा थे, उनसे कहा"अरे भाई ! तेरे राज्य में यह कैसा अनर्थ ?" पद्मराय ने कहा-“प्रभो ! मैं लाचार हूँ, अभी राजसत्ता मेरे हाथ में नहीं है।" उनसे सम्पूर्ण बात जान कर विष्णुकुमार मुनि ने सात सौ मुनियों की रक्षा हेतु अपना मुनिपना थोड़ी देर के लिए छोड़ कर, एक बौने ब्राह्मण पण्डित का रूप धारण किया और बलि राजा के पास आकर अत्यन्त मधुर स्वर में उत्तमोत्तम श्लोक बोलने लगे। बलि राजा उस वामन पण्डित का दिव्य रूप देखकर और मधुर वाणी सुन कर मुग्ध हो गया । "आपने पधार कर यज्ञ की शोभा बढ़ाई।" - ऐसा कह कर बलि राजा ने पण्डित का सम्मान किया और इच्छित वर माँगने को कहा । .. अहो, अयाचक मुनिराज ! जगत के नाथ !!..... वे आज स्वयं
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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