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__ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/३६ नहीं थी । वह चोर किसी भी तरह से वहाँ पहुँच नहीं पाया । इसलिए अन्त में एक त्यागी ब्रह्मचारी का कपटी वेश धारण करके वह उस सेठ के यहाँ पहुँचा । उस त्यागी बने चोर में वर्तृत्व की अच्छी कला थी। जिस किसी से वह बात करता, उसे अपनी तरफ आकर्षित कर लेता, उसी तरह व्रत-उपवास इत्यादि को दिखा-दिखा कर लोगों में उसने प्रसिद्धि भी पा ली, अत: उसे धर्मात्मा समझ कर जिनभक्त सेठ ने स्वयं चैत्यालय की देख-रेख का काम उसे सौंप दिया ।
सूर्य चोर तो उस नीलम मणि को देखते ही आनन्द विभोर हो गया......और विचार करने लगा- “कब मौका मिले और मैं कब . इसे लेकर भागूं ?"
इन्हीं दिनों, सेठ को बाहर गाँव जाना था । इसलिए उस बनावटी ब्रह्मचारी श्रावक से चैत्यालय संभालने के बारे में कह कर सेठ चले गये । जब रात होने लगी तो गाँव से थोड़ी दूर जाकर उन्होंने पड़ाव डाला । . रात हो गई......... सूर्य चोर उठा...... नीलम मणि रत्न को जेब में रखा और भागने लगा, परन्तु नीलम मणि का प्रकाश छिपा नहीं, वह अन्धेरे में भी जगमगाता था । इससे चौकीदारों को शंका हुई और उसे पकड़ने के लिए वे उसके पीछे दौड़ पड़े।
'अरे....... मन्दिर के नीलम मणि की चोरी करके चोर भाग रहा है...। पकड़ो.....पकड़ो.....पकड़ो ।” चारों ओर सिपाहियों ने हल्ला मचाया ।
इधर सूर्य चोर को भागने का कोई मार्ग नहीं रहा, इसलिए वह तो जहाँ जिनभक्त सेठ का पड़ाव था, वहीं पर घुस गया । चौकीदार चिल्लाते हुए चोर को पकड़ने के लिए पीछे से आये । सेठ सब कुछ समझ गया...... “अरे! ये भाईसाहब चोर हैं, त्यागी नहीं ।”
. "लेकिन त्यागी के रूप में प्रसिद्ध यह मनुष्य चोर है - ऐसा लोगों में प्रसिद्ध हुआ तो धर्म की बहुत निन्दा होगी" - ऐसा विचार