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· जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/३१ . मथुरा में आते ही प्रथम उन्होंने सुरत मुनिराज के दर्शन किए। वे बहुत ही शान्त और शुद्ध रत्नत्रय का पालन करने वाले थे । चन्द्र राजा ने उन्हें नमस्कार किया और उन्हें गुप्ताचार्य का सन्देश कहा ।
चन्द्र राजा की बात सुनकर सुरत मुनिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की और स्वयं भी विनय पूर्वक हाथ जोड़ कर श्री गुप्ताचार्य के प्रति परोक्ष नमस्कार किया ।
मुनिवरों का एक-दूसरे के प्रति ऐसा वात्सल्य भाव देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। सुरत मुनिराज ने कहा- “हे वत्स! वात्सल्य से धर्म शोभता है । उन रत्नत्रय के धारक आचार्यदेव को; जिन्होंने इतने दूर से साधर्मी के रूप में मुझे याद किया । शास्त्र में सच ही कहा है
ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं शव्या धर्मानुरागतः। ... सर्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले।।
अर्थ- अहो ! जो भव्यजीव धर्म से प्रीति होने के कारण साधर्मी जनों के प्रति वात्सल्य करते हैं, उनका जन्म जगत में सफल है।"
प्रसन्नचित्त से भाव पूर्वक बारम्बार मुनिराज को नमस्कार करके राजा वहाँ से निकले और भव्यसेन मुनिराज के पास आये ।.......उन्हें बहुत शास्त्र ज्ञान था और लोगों में वे बहुत प्रसिद्ध थे । राजा उनके साथ थोड़े समय रहे, परन्तु उन मुनिराज ने न तो आचार्य संघ का कोई समाचार पूछा और न कोई उत्तम धर्म चर्चा की । मुनि के योग्य आचार-व्यवहार भी उनका नहीं था । यद्यपि वे शास्त्र पढ़ते थे, फिर भी शास्त्रानुसार उनका आचरण नहीं था । मुनि को नहीं करने योग्य प्रवृत्ति वे करते थे । यह सब अपनी आँखों से देख कर राजा की समझ में आ गया- “ये भव्यसेन मुनि चाहे जितने प्रसिद्ध हों, परन्तु वे सच्चे मुनि नहीं हैं तो फिर गुप्ताचार्य उन्हें क्यों याद करेंगे? सच में, उन चतुर आचार्य भगवान ने योग्य ही किया ।"
इस प्रकार चन्द्र राजा ने सुरत मुनि और भव्यसेन मुनि की स्वयं आँखों से देखकर परीक्षा की । रेवती रानी को भी आचार्य महाराज