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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/२४ की धारा बहने लगी । सचमुच यह रंगोली निकालने वाली और कोई नहीं थी, बल्कि स्वयं अनन्तमती ही थी । भोजन करने जब वह यहां आई थी, तब उसने यह रंगोली निकाली थी और बाद में वह आर्यिका संघ में वापस चली गई थी । अत: वे संघ में पहुँचे और वहां अपनी पुत्री को देख कर और उस पर बीती हुई कहानी सुन कर अत्यन्त दुःखी हुए और कहने लगे- “बेटी! तुमने बहुत कष्ट भोगे हैं, अब हमारे साथ घर चलो । तुम्हारी शादी बड़ी धूमधाम से रचायेंगे ।" शादी की बात सुनते ही अनन्तमती आश्चर्य में पड़ गई और बोली- “पिताजी, आप यह क्या कह रहे हो? मैं तो ब्रह्मचर्य व्रत ले चुकी हूँ । आप तो यह सब जानते हो......आपने ही मुझे यह व्रत दिलवाया था ।" पिताजी ने कहा-“बेटी वह तो बचपन की बात थी । ऐसी मजाक में ली हुई प्रतिज्ञा को तुम सत्य मानती हो? वैसे भी उस वक्त सिर्फ आठ ही दिन के लिए प्रतिज्ञा लेने की बात थी, इसलिए अब तुम शादी करलो ।" ... तब अनन्तमती ने दृढ़ता पूर्वक कहा-“पिताजी, आप भले ही .. आठ दिन के लिए समझे हों, परन्तु मैंने तो मेरे मन में आजीवन के लिए प्रतिज्ञा धारण कर ली थी । अपनी प्रतिज्ञा मैं प्राणान्त होने पर भी नहीं तोडूंगी, इसलिए आप शादी का नाम न लें।" _ अन्त में पिताजी ने कहा- “अच्छा बेटा, जैसी तुम्हारी मर्जी, परन्तु अभी तो तुम हमारे साथ घर चलो, वहीं धर्म-साधना करना ।" उस पर अनन्तमती कहती है—“पिताजी, इस संसार की लीला मैंने देख ली है । संसार में भोग-लालसा के अलावा अन्य क्या है? इसलिए अब बस करो । पिताजी, इस संसार सम्बन्धी भोगों की मुझे आकांक्षा नहीं रही । मैं तो अब दीक्षा लेकर आर्यिका बनूंगी और इन धर्मात्मा आर्यिका-माता के साथ रहकर आत्मिक सुख को साधूंगी ।" , पिताजी ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु जिसके रोम-रोम में वैराग्य छा गया हो, वह इस संसार में क्यों रहे? संसार
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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