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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६५ इतना कपट!! अकलंककुमार! आपके विद्वत्तभरे न्याय-वचन सुनकर मुझे बहुत ही आनंद हुआ है। अनेक युक्तियों द्वारा आपने अनेकान्तमय जैनधर्म को सिद्ध किया है। उससे प्रभावित होकर मैं जैनधर्म को स्वीकार करता हूँ और जिनेन्द्र भगवान की रथयात्रा में मैं ही भगवान के रथ का सारथी बनूंगा। मंत्रीजी! जिनेन्द्र रथयात्रा की तैयारी धूमधाम से करो। उसके लिए राज्य के भंडार खोल दो और राज्य के हाथी, घोड़े आदि समस्त वैभव को रथयात्रा की शोभा हेतु बाहर निकालो।
मंत्री : जैसी आज्ञा! (ऐसा कहकर मंत्री चला जाता है।)
एकांती शिष्य गण : (एक साथ सब खड़े होकर) महाराज! हमारे आचार्यश्री ने जो अयोग्य कार्य किया है, उससे हमें दुख हो रहा है। यह वाद-विवाद सुनकर हम भी जैनधर्म से प्रभावित हुए हैं, इसलिए एकान्त धर्म छोड़कर हम भी जैनधर्म अंगीकार करते हैं।
__ प्रजाजन : (एक साथ खड़े होकर) महाराज! हम भी जैनधर्म अंगीकार करते हैं।
संघपति : चलो बन्धुओ! आज इन अकलंक महाराज के प्रताप से हमारे जैनधर्म की बड़ी सुन्दर विजय हुई और खूब प्रभावना हुई। इस खुशहाली में हम सब जैनधर्म की महिमा का एक गीत गाते हैं।
सभाजन : हां चलो! चलो!! आज तो महा आनन्द का प्रसंग है।
(सब खड़े होकर भजन गाते हैं। संघपति के एक ओर राजा हैं, दूसरी ओर अकलंक हैं। जिनकुमार के हाथ में झंडा लहरा रहा है। संघपति गीत गा रहे हैं।)
मेरा जैनधर्म अनमोला, मेरा जैनधर्म अनमोला ।।टेक।। इसी धर्म में वीरप्रभु ने, मुक्ति का मारग खोला। मेरा जैनधर्म अनमोला, मेरा जैनधर्म अनमोला।॥१॥