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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५८ तीसरा दृश्य:
(राज्यसभा में राजा, मंत्री आदि बैठे हैं। एक तरफ से “बोलिए! जैनधर्म की जय" ऐसे जय-जयकार के साथ अकलंककुमार अपनी मंडली सहित प्रवेश करते हैं। दूसरी ओर से संघश्री नाम के आचार्य अपनी मंडली सहित अपने धर्म की जय-जयकार करते हुए प्रवेश करते हैं। नागरिक एक-एक करके आते हैं। सम्पूर्ण सभा-मण्डप में भीड़ हो जाती है।)
राजा : सभाजनो और प्रजाजनो! सुनो, आज इस सभा में एकांती अजैनों और जैनों के विद्वानों के बीच वाद-विवाद हो रहा है। उसमें एकांत पक्ष की ओर से आचार्य संघश्री बोलेंगे और जैन पक्ष की ओर से मान्यखेट नगर के राजमंत्री के विद्वान पुत्र अकलंककुमार बोलेंगे। इस वाद-विवाद को करते-करते जो योग्य जवाब नहीं दे सकेगा। अथवा मौन हो जायेगा, वह हारा हुआ समझा जायेगा। जो जीतेगा, उसकी रथयात्रा पहले निकलेगी। बस, अब चर्चा प्रारम्भ होती है, सब शान्ति से सुनिये।
संघश्री : बोलिए महानुभाव! आपके जैनधर्म का मूल सिद्धान्त क्या है?
अकलंक : हमारे जैनधर्म का मूल सिद्धांत अनेकान्त' है। संघश्री : अनेकान्त का क्या अर्थ है?
अकलंक : प्रत्यके वस्तु में अनेक धर्म रहते हैं, यही अनेकान्त है। परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मों के द्वारा ही वस्तु की सिद्धि हो सकती है। सर्वथा एकान्त के द्वारा वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती।
संघश्री : एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध दो धर्म कैसे हो सकते हैं?
अकलंक : एक दूसरे से सर्वथा विरुद्ध धर्म एक वस्तु में नहीं रह सकते हैं, लेकिन कथंचित् विरुद्ध दो धर्म एक वस्तु में रहते हैं।