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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२५ गहन अध्ययन करना पड़ेगा, उसके बाद ही हम उनकी भूल खोज कर उसका खंडन कर सकेंगे।
निकलंक : परन्तु भाई! ये एकांतमत वाले लोग हम जैनों को कुछ अध्ययन आदि नहीं कराते हैं।
अकलंक : इसका भी उपाय मैंने सोच लिया है। सुनो! (कान में कुछ कहता है।)
निकलंक : वाह, बहुत ही सुन्दर उपाय है, धन्य है भैया आपकी बुद्धि को।
अकलंक : अब अपने कार्य की सिद्धि के लिए हमें जल्दी ही यहाँ से प्रस्थान करना चाहिए।
निकलंक : हाँ, परन्तु जाने से पहले हमें यह बात पिताजी को बता देनी चाहिए, अन्यथा वे हमें ढूंढने लगेंगे।
अकलंक : तुम्हारी बात ठीक है। चलो, हम पिताजी की आज्ञा लेने चलते हैं।
(पिताजी प्रवेश करते हैं।)। निकलंक : लो, पिताजी स्वयं आ पहुँचे। (दोनों भाई हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं।)
अकलंक : पिताजी जैनशासन की सेवा के लिए हम देशान्तर जा रहे हैं। आप हमारी कुछ भी चिंता नहीं करना। हम अपने सर्वस्वबुद्धि, शक्ति, ज्ञान, वैराग्य, तन, मन, धन, वचनादि से जैन-शासन की सेवा करेंगे और जैनधर्म के झंडे को विश्व के गगन में फहरायेंगे। जिनेन्द्र भगवान हमारे जीवन में साथीदार हैं।
पिताजी : धन्य है पुत्रो! तुम्हारी भावना को। जाओ, खुशी से जाओ। तुम अपनी योजना में सफल होओ और जैनधर्म का जय