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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२३
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मैं सहज शुद्ध ज्ञानानंद एक स्वभाव हूँ। निर्विकल्प हूँ...उदासीन हूँ.. निज निरंजन शुद्धात्माका सम्यक
श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान रूप हूँ... निश्चय रत्नत्रयरूप निर्विकल्प समाधि में अनुभवसे ज्ञात वीतराग
सहजानंद रूप हूँ
सर्व विभाव परिणामरहित शून्य हूँ... मात्र सुख की अनुभूतिरूप लक्षणवाला स्वसंवेदन ज्ञान से स्वसंवेद्य-गम्य - प्राप्य भरा हुआ - परिपूर्ण ।
परमात्मा हूँ...
निकलंक : अहो! ऐसी परमात्म-भावना में लीन संतों को कितना आनन्द आता होगा।
अकलंक : अहा, उसकी क्या बात! जब सम्यग्दर्शन का आनन्द भी सिद्ध भगवान जैसा अपूर्व है, जिसे आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की उपमा नहीं दी जा सकती, तो फिर मुनिदशा के आनन्द की क्या बात?
निकलंक : भाई! बलिहारी है अपने जैनधर्म की, उसके सेवन से ऐसे अपूर्व आनन्द की प्राप्ति होती है।
अकलंक : हाँ भाई! बात तो ऐसी ही है। वास्तव में एकमात्र जैन-शासन ही इस जगत के जीवों को शरणभूत है, लेकिन.....