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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२२ कल्याण साधो और जैनधर्म की महान प्रभावना करके जिन-शासन की शोभा बढ़ाओ।
(नमस्कार करके दोनों पुत्र जाते हैं। पर्दा गिरता है और फिर उठता है।)
(अकलंक शास्त्र-स्वाध्याय कर रहे हैं, वहाँ निकलंक आकर नमस्कार करते हैं।)
अकलंक : मैं ‘परमात्म-प्रकाश' का स्वाध्याय कर रहा हूँ।
निकलंक : वाह, परमात्मा का स्वरूप समझने के लिए और भेदज्ञान की भावना के लिए यह बहुत ही सुन्दर शास्त्र है। हे भाई! मुझे भी इसमें से कुछ सुनाओ।
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अकलंक : सुनो! इस शास्त्र के अन्त में सम्पूर्ण शास्त्र के साररूप ऐसी भावना करने को कहा है कि मैं सहज शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव एक ही हूँ, निर्विकल्प हूँ, उदासीन हूँ, निज निरंजन शुद्धात्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप निश्चय रत्नत्रयमयी निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप आनंदानुभूतिमात्र स्वसंवेदनज्ञान से गम्य हूँ, अन्य उपायों से गम्य नही हूँ। मैं सर्व विभाव परिणामों से रहित शून्य हूँ, ऐसा- तीन लोक, तीन काल में मनवचन-काय के द्वारा, कृत-कारित-अनुमोदना के द्वारा शुद्ध निश्चय से ऐसा मैं आत्माराम हूँ तथा सभी जीव ऐसे हैं- ऐसी निरंतर भावना करनी चाहिये।