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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/३१ रे संसार ! जो कभी राजकुमारी के रूप में उस महल में उछलकूद करती थी, आज वही उसी महल में जाने पर द्वारपाल द्वारा रोकी गयी। अरे रे ! संसार में पुण्य-पाप का चक्र ऐसा ही चलता है।
जब वसंतमाला ने द्वारपाल को सम्पूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत कराया, तब वह दरवाजे पर अन्य व्यक्ति को खड़ा करके स्वयं अंदर गया
और राजा महेन्द्र को अंजना के आगमन का समाचार दिया, उसे सुनकर राजा महेन्द्र ने अपने पुत्र प्रसन्नकीर्ति को आदेश दिया कि “तुम शीघ्र अंजना के सन्मुख जाओ और शीघ्र ही उसके नगर प्रवेश की तैयारी कराओ, नगर को सजाओ, मैं अभी आता हूँ।" ।
राजा की ऐसी आज्ञा सुनकर द्वारपाल ने हाथ जोड़कर कहा - “हे महाराज ! कुमारीजी अकेली ही पधारी हैं, उनके साथ सखी वसंतमाला के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है और किसी प्रकार का ठाटबाट भी नहीं है, उनकी सास ने उन पर कलंक लगाकर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया है, वे यहाँ बाहर द्वार पर खड़ी हैं एवं भीतर आने हेतु आपकी अनुमति चाहती हैं।" ____तब पुत्री पर लगे कलंक की बात सुनकर राजा महेन्द्र को लज्जा आई और क्रोधित हो अपने पुत्र को आदेश दिया – “उस पापिनी को शीघ्र ही नगर से बाहर कर दो, उसकी बात सुनते हुए भी मेरे कान फटे जा रहे हैं।"
राजा महेन्द्र की क्रोधपूर्ण आज्ञा को सुनकर उनका अत्यन्त प्रिय सामन्त मनोत्साह आकर कहने लगा- "हे नाथ ! वसन्तमाला से सम्पूर्ण वस्तुस्थिति ज्ञात किये बिना यह आज्ञा देना उचित नहीं है। अपनी अंजना उत्तम संस्कारों से संयुक्त एवं धर्मात्मा है, जबकि उसकी सास केतुमति अत्यन्त क्रूर है; इतना ही नहीं, वह तो जैनधर्म से परांगमुख एवं नास्तिकमत में प्रवीण है - यही कारण है कि उसने बिना विचारे अंजना पर दोषारोपण किया है। अंजना तो जैनधर्म की ज्ञाता होने के साथ ही श्रावक के व्रतों