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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२९ उसकी सास के संदेह का निवारण न हुआ और अत्यन्त क्रोधपूर्वक उसने एक सेवक को आदेश दिया- “जाओ ! इस दुष्टा को इसकी सखी सहित रथ में बिठाकर महेन्द्रनगर के समीप छोड़ आओ।"
क्रूर केतुमति की आज्ञा पाकर सेवक ने उसका अनुसरण किया और दोनों को रथ में बिठाकर महेन्द्रनगर की ओर प्रस्थान करा दिया। उस समय भयाक्रान्त हो अंजना का सारा शरीर काँप रहा था, भय के कारण वह अपनी सास से और कुछ भी न कह सकी। उसकी दशा तो प्रचण्ड पवन के वेग से उखड़ी हुयी बेल की भांति एकदम निराश्रय हो गयी थी। वह बारम्बार अपने अशुभ कर्मोदय की निन्दा करती थी, उसका चित्त अत्यन्त अशान्त था।
शाम होते-होते रथ महेन्द्रनगर के समीप पहुँच गया। तब सेवक ने अंजना से कहा – “हे देवी ! माताजी ने आपको यहाँ तक ही छोड़ने की आज्ञा दी है, उन्हीं की आज्ञा से यह दुखरूप कार्य मुझे करना पड़ रहा है । मुझे क्षमा कर दें।" - ऐसा कहकर वह सेवक वापस महेन्द्र नगर की ओर बढ़ गया।
महापवित्र पतिव्रता अंजना सुन्दरी को अत्यन्त दुखी देखकर सूर्य भी मन्द पड़कर अस्त हो गया। रो-रोकर अंजना की आँखें लाल हो जाने से मानो पश्चिम दिशा भी लाल रंग में रंग गयी। धीरे-धीरे रात्रि हुई और चारों ओर अन्धकार व्याप्त हो गया। वन्य पशु-पक्षी भी मानो अंजना के दुख से दुखित हो कोलाहल करने लगे।
अपमानरूप महादुखसागर में डूबी अंजना भूख-प्यास आदि सब भूल गयी। भयभीत हो रुदन करने लगी, अंजना की इस दुखित अवस्था से द्रवित हो वसन्तमाला उसे धैर्य दिलाती हुई कहने लगी- “हे बहिन ! तुम धैर्य धारण करो। तुम तो आत्मज्ञानी हो देव-गुरु-धर्म की परम भक्त हो, पवित्रात्मा हो, पतिव्रता हो, तुम्हारे ऊपर यह संकट मुझसे नहीं देखा