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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/६९
पाण्डवों का वैराग्य (श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण के कहे अनुसार जरतकुमार पाण्डवों के पास जाते हैं और उन्हें सारा वृत्तान्त बताते हैं। आगे क्या होता है ? - इसे इस कहानी में पढ़िये।)
जरतकुमार के द्वारा द्वारिका नगरी के नाश का तथा श्रीकृष्ण की मृत्यु का समाचार सुनकर पाण्डव एकदम शोकमग्न हुए। उन्होंने द्वारिका नगरी फिर से नई बसायी और श्रीकृष्ण के भाई जरतकुमार को द्वारिका के राजसिंहासन पर बिठाया....।
तब नेमिप्रभु तथा श्रीकृष्ण के समय की हरी-भरी द्वारिका तथा वर्तमान की द्वारिका का हाल-बेहाल देखकर पाण्डव शोकातुर हो गये, वे वैराग्य से ऐसा चिन्तवन करने लगे -
“अरे, यह द्वारिका नगरी देवों द्वारा रचायी गई थी, वह भी आज पूरी जलकर राख हो गयी है। प्रभु नेमिकुमार जहाँ की राजसभा में विराजते, थे और जहाँ हमेशा नये-नये मंगल उत्सव होते थे, वह नगरी आज सुनसान हो गयी। कहाँ गये रुक्मणि आदि रानियों के सुंदर महल और कहाँ गये वे हर्ष से ओतप्रोत पुत्र आदि कुटुम्बी जन । वास्तव में कुटुम्बादि का संयोग क्षणभंगुर है, वह बादल के समान देखते ही देखते विलय हो जाते हैं। संयोग तो नदी के बहते प्रवाह जैसे चंचल हैं, उन्हें स्थिर नहीं रखा जा सकता । संसार की ऐसी विनाशीक दशा देखकर विवेकी जीव विषयों के राग से विरक्त हो जाते हैं।
वास्तव में तो जिन स्त्री-पुत्र-पौत्र वगैरह को जीव अपना मानते हैं, वे अपने हैं ही नहीं। जहाँ यह पास रहने वाला शरीर ही अपना नहीं है, तब दूर रहने वाले परद्रव्य अपने कैसे हो सकते हैं ? बाह्यवस्तु में सुखदुख मानना तो मात्र कल्पना ही है। अपनी वस्तु तो मात्र ज्ञानस्वरूपी आत्मा ही है। विषयभोग मूर्ख जीवों को ही सुखकर लगते हैं, परन्तु वास्तव में वे नीरस हैं और उनका फल दुखरूप है।