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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७० जो मूढ़ अज्ञानी जीव उसके सेवन से अपने को सुखी मानते हैं, वे आँखें होते हुए भी अन्धे होकर दुखरूपी कुएँ में गिरते हैं और दुर्गति में जाते हैं। खुजली के समान इन्द्रिय-विषयों के भोग का फल दुखदायक ही है और उनसे जीव को कभी तृप्ति नहीं मिलती। विषयों के त्याग और चैतन्यसुख के सेवन से ही इस जीव को तृप्ति मिल सकती है।
पाँच-इन्द्रियों के विषयों में लीन जीव पाँच प्रकार के परिवर्तन रूप दीर्घ संसार में चक्कर लगाते हैं और मिथ्यात्व की वासना के कारण अपने हित-अहित का विचार नहीं कर सकते तथा धर्म की तरफ उनकी रुचि भी जागृत नहीं होती। अत: मोक्षसुख को चाहने वाले भव्य जीवों को मिथ्यात्व और विषय-कषायों का त्याग करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म प्राप्त करने का उद्यम करना चाहिये।"
____ इस प्रकार वैराग्यपूर्वक विचार करते-करते वे पाण्डव द्वारिका से प्रस्थान करके पल्लव देश में आये और वहाँ विराजमान श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर के दर्शन किये। उन्होंने प्रभु के केवलज्ञान की स्तुति की और धर्म की पिपासा के साथ उनका धर्मोपदेश सुना।
प्रभु की दिव्यवाणी में चिदानन्द तत्त्व की स्वानुभूति और मोक्षसुख की अपूर्व महिमा सुनकर उन पाण्डवों का चित्त शान्त हुआ....उन्हें आत्मशुद्धि की वृद्धि प्राप्त हुई.... संसार से उनका चित्त विरक्त हुआ और मोक्ष को साधने के लिए वे उत्सुक हुए। वे विचारने लगे -
“अरे ! नेमिनाथ प्रभु के समान तीर्थंकर का साक्षात् सुयोग मिलने पर भी अब तक हम असंयम में ही रहे और तुच्छ राज्यभोगों के लिए अनेक बड़ी से बड़ी लड़ाईयाँ भी लड़-लड़कर अपना जीवन गवाँ दिया।
अरे ! श्रीकृष्ण के समान अर्द्ध चक्रवर्ती राजा का राज्य भी जहाँ स्थिर नहीं रहा । द्वारिका नगरी देखते-देखते आँखों के सामने ही सारी जल गई और श्रीकृष्ण जैसा राजा भी पानी के बिना वन में मृत्यु को प्राप्त हुआ।