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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/६८
श्रीकृष्ण के वियोग से छह माह तक बलभद्र का चित्त बहुत उद्विग्न रहा। अन्त में उनका सारथी, जो कि मरकर सिद्धार्थ देव हुआ था, उसने आकर सम्बोधन किया -
"हे महाराज ! जिस प्रकार रेत में से तेल नहीं निकलता, पत्थर पर घास नहीं उगती, मरा हुआ पशु घास नहीं खाता। उसी प्रकार मृत्यु को प्राप्त मनुष्य फिर से सजीव नहीं होता, तुम तो ज्ञानी हो; इसलिए श्रीकृष्ण से मोह छोड़ो और संयम धारण करो।" ।
सिद्धार्थ देव के सम्बोधन से बलभद्र का चित्त शांत हुआ।
उन्होंने संसार से विरक्त होकर उन्होंने जिनदीक्षा ली, आराधना पूर्वक समाधि-मरण करके स्वर्ग गये।
नया आत्मज्ञान मनुष्य को आठ वर्ष की आयु के पहले प्रगट नहीं होता, परन्तु जो पूर्वभव से ही आत्मज्ञान साथ में लेकर आते हैं, उन्हें तो बचपन में भी आत्मज्ञान रहता है। जिनको अभी तो डगमगाते कदमों से चलना भी न आता हो, किन्तु अन्दर में देह से भिन्न आत्मा का अनुभवज्ञान निरन्तर चल रहा हो; ऐसे आराधक जीव तो छुटपन से ही ज्ञानी होते हैं। - छहढाला प्रवचन भाग-१, पृष्ठ १२१