________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/६५ कैसे होगा ? भाई के घात से मेरा महान अपयश हुआ, मैंने महापाप बाँधा और मैं ही दुखी हुआ.... ऐसा कहकर वह बहुत विलाप करने लगा।
श्रीकृष्ण ने कहा - हे भाई! विलाप छोड़ो.... इस संसार में सभी जीव अपने कर्म के अनुसार जीवन-मरण, संयोग-वियोग प्राप्त करते हैं। दूसरे कोई मित्र या शत्रु उसे सुख-दुख देने वाले नहीं हैं।
हे बन्धु! बलदेव मेरे लिए पानी लेने के लिए गये हैं, वे यहाँ आयें, उसके पहले शीघ्र ही तुम यहाँ से चले जाओ। जब वे यहाँ आकर मेरी यह हालत देखेंगे, तब उन्होंने क्रोधित होकर कदाचित् तुम्हें मार डाला, तो अपना वंश ही न रहेगा । अपने वंश में तुम अकेले ही बचे हो, इसलिए तुम श्रावक व्रत धारण करके पाण्डवों के पास जाओ, तुम उनसे सब बात करो। वे हमारे परम हितैषी हैं, जिससे हमारे कुल की रक्षा करने के लिए वे तुम्हें राज्य देंगे।" निशानी के लिए अपनी कौस्तुभमणि श्रीकृष्ण ने देते हुए कहा – “इस चिह्न से पाण्डव तुम पर विश्वास करके तुम्हारा आदर करेंगे। इस मणि को छिपाकर ले जाना" - ऐसा कहकर क्षमाभाव पूर्वक श्रीकृष्ण ने उन्हें विदा दी।
जरतकुमार ने भी क्षमाभाव धारण किया....और उनके पैर का बाण सावधानी पूर्वक निकालकर कहा – “हे देव ! क्षमा करो।" - ऐसा कहकर वहाँ से चले गये।
श्रीकृष्ण को बाण लगने के कारण भयंकर वेदना हो रही थी, अपना अन्त समय जानकर उन्होंने अपना मुख उत्तर दिशा की ओर किया
और पल्लव देश में विराजमान श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र भगवान को याद करके नमस्कार किया.... यादव कुल के ईश्वर भगवान नेमिनाथ के अनन्त गुणों को स्मरण करके बारम्बार नमस्कार किया। पंच-परमेष्ठी का स्मरण किया। तीनों काल के तीर्थंकरों-सिद्धों-साधुओं और जिनधर्म की शरण लेकर, पृथ्वी के नाथ पृथ्वी पर गिर गये।
पा