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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/६६ __ वे विचार करने लगे – “अरे मेरे पुत्र-पौत्र-स्त्री-बन्धु-गुरुजन आदि द्वारिका के भस्म होने से पहले संसार से विरक्त होकर जिनेन्द्र भगवान के मार्ग की आराधना करके तप में प्रवर्ते -वे धन्य हैं और अग्नि का उपद्रव होने पर हजारों रानियाँ तथा परिवार परम समाधि योग को धारण करके देह छोड़कर स्वर्ग लोक में गये; परन्तु अग्नि के उपद्रव से कायर नहीं हुए - वे सभी धन्य हैं। अप्रत्याख्यान कषाय के कारण मैं श्रावक के या मुनि के व्रत न ले सका, परन्तु केवल सम्यक्त्व को ही धारण किया, वही मुझे संसार-समुद्र से पार करने के लिए हस्तावलंबन रूप है। जिनमार्ग में मेरी श्रद्धा अत्यन्त दृढ़ है।"
भावी तीर्थंकर ऐसा शुभ चिंतन कर रहे थे, परन्तु अंतिम समय में परिणाम किंचित् संक्लेश रूप हो गये....और देह छोड़कर तीन खण्ड के नाथ मेधाभूमि-परलोक पधारे। कौशाम्बी वन से वे परभव सिधारे।
अरे ! प्यास बुझाने के लिए पानी मँगाया.... परन्तु पानी आने से पहले ही प्राण छूट गये.... अहो ! इस क्षणभंगुर संसार में ऐसे महापुरुषों का शरीर भी स्थिर नहीं तो दूसरों की क्या बात ?
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार ।
मरना सब को एक दिन, अपनी-अपनी बार ॥
अरे ! कहाँ तीन खण्ड पृथ्वी का राजवैभव और कहाँ पानी के बिना निर्जन वन में मृत्यु ! पुण्य के समय सेवा करने वाले हजारों देवों में से कोई भी इन प्यासे को पानी पिलाने नहीं आया। संयोगों का क्या भरोसा।
थोड़ी देर बाद बलभद्र पानी लेकर आये.... आकर देखा तो श्रीकृष्ण निश्चेष्ट होकर सो रहे हैं.... तीव्र प्रेम के कारण उन्हें श्रीकृष्ण की मृत्यु की कल्पना भी कहाँ से हो ?
___प्यासे श्रीकृष्ण का जरतकुमार के बाण से देह विलय हो गया। बलभद्र व्याकुल होकर कहते हैं -