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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/६४ भगवान द्वारा कथित भवितव्य कभी मिथ्या नहीं होता। श्रीकृष्ण ने जरतकुमार को स्नेह से अपने पास बुलाया – “हे भाई! तुम यहाँ मेरे पास आओ।"
__ पास आते ही जरतकुमार ने श्रीकृष्ण को पहचान लिया कि - “अरे ! यह तो वासुदेव !! मेरा छोटा भाई !!! क्या मेरे ही बाण से घायल हो गया ? हाय ! मुझे धिक्कार है ! मुझे धिक्कार है !!" ऐसा कहकर उसने धनुष-बाण फेंक दिया और श्रीकृष्ण के पास ही गिर गया ।
“हे बड़े भाई ! तुम शोक न करो, सर्वज्ञ के द्वारा कथित भवितव्य अलंघ्य है। मेरे प्राणों के लिए तो तुम राजपाट, सुख-सम्पदा छोड़कर अकेले वन में रहे, भवितव्य के निवारण हेतु बहुत कोशिश की; परन्तु भवितव्य टल नहीं सकता। बाहर में भाग्य ही जिस समय प्रतिकूल हो, उस समय हम क्या प्रयत्न कर सकते हैं ? इसलिए तुम शोक छोड़ो, अब सर्वज्ञ भगवान पर श्रद्धा रखो, इन हिंसादि पापों को छोड़ो और श्रावक के व्रत धारण करो।"
श्रीकृष्ण के प्रेमपूर्वक वचनों को सुनकर जरतकुमार का चित्त शान्त हुआ और उन्होंने श्रीकृष्ण से इस वन में आने का कारण पूँछा ?
तब श्रीकृष्ण ने दुखी होकर कहा – “हे भाई ! द्वारिका नगरी तो जल गयी, जो वैराग्यवन्त जीव त्यागी होकर चले गये, वे ही बचे; बाकी सब भस्म हो गये.... पूरे यादव कुल का नाश हो गया....माता-पिता को भी हम न बचा सके। मात्र हम दो भाई ही बाहर निकल सके और दक्षिण की ओर जाते समय इस वन में आये....।"
सारी द्वारिका नगरी के समस्त यादव कुल का नाश सुनकर जरतकुमार बहुत विलाप करने लगा.... अरे ! वहाँ सारी नगरी के यादव जल गये, यहाँ तक कि माता-पिता भी भस्म हो गये और आज हमारे हाथ से तुम्हारा घात हुआ। अरे रे ! अब मैं क्या करूँ ? मेरे चित्त को समाधान