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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/६३ घायल किया? तुम जो भी हो, अपना नाम तथा कुल बताओ.... क्योंकि नाम कुल जाने बिना मैं किसी का घात नहीं करता – यह हमारा प्रण है, इसलिये तुम कौन हो ? और बिना कारण किस वैर से तुम हमारे प्राणों का अंत करना चाहते हो, सो कहो।"
तब जरतकुमार ने जाना कि अरे ! यह तो जानवर के बदले कोई उत्तम मनुष्य मेरे बाण से घायल हो गया है, अतः खेदपूर्वक अपना परिचय देते हुए उसने कहा -
“इस पृथ्वी पर हरि वंश का नाम प्रसिद्ध है, जिस वंश में भगवान नेमिनाथ ने अवतार लिया, जिस वंश में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया; उसी हरि वंश में मैं भी उत्पन्न हुआ हूँ....श्री वसुदेव, जो श्रीकृष्ण के पिता हैं, मैं उनका ही पुत्र जरतकुमार हूँ। जब नेमिनाथ प्रभु की वाणी से सुना कि बारह वर्ष बाद मेरे ही हाथ से मेरे भाई श्रीकृष्ण कां मरण होगा.... तब से श्रीकृष्ण के मोह के कारण मैं उनकी रक्षा के लिए नगर छोड़कर इस निर्जन वन में आया हूँ.... और अकेला भ्रमण कर रहा हूँ.... इस वन में मुझे बारह वर्ष से भी अधिक समय बीत गया है। (रे जीव ! भवितव्य के योग से तू गिनती भूल गया है....अभी बारह वर्ष पूरे नहीं हुए....जैसे द्वारिका के नगरजन तथा द्वीपायन मुनि भी दैवयोग से गिनती भूल गये थे.... वैसे ही तुम भी....)
जरतकुमार आगे कहते हैं – “इस वन में मैं बारह वर्ष से अकेला घूम रहा हूँ। अभी तक मैंने यहाँ उत्तम पुरुष के वचन नहीं सुने, इसलिए तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो ? सो कहो।"
(अरे देखो तो जरा ! पुण्ययोग के समाप्त होने पर श्रीकृष्ण जैसे महात्मा की भी ऐसी दशा हो गयी कि उनका भाई ही उन्हें समझ न सका....)
- श्रीकृष्ण समझ गये कि ये मेरे बड़े भाई जरतकुमार हैं। अहो !