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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/६२
पानी से थोड़े ही समय तक प्यास बुझती है और फिर प्यास लगने लगती है, अरे ! जिनवचन रूपी अमृत तो सदाकाल के लिए विषय - तृष्णा को मूल से ही मिटा देता है । हे जिनशासन के वेत्ता ! तुम इस बट-वृक्ष की शीतल छाया में आराम करो, मैं शीघ्र ही पानी लाता हूँ। तुम चित्त को शीतल करके शान्तभाव रूप निज भवन में जिनेश्वर की स्थापना करो। "
इस तरह बड़ा भाई छोटे भाई को समझाकर उसके लिए पानी की खोज में निकल पड़ा है। कृष्ण के दुख से उसका चित्त भी दुखी है, वह अपना सुख भूल गया है.... एक कृष्ण की ही चिन्ता है.... वह उसके लिए पानी लेने बहुत दूर तक चला गया । रास्ते में अनेक अपशकुन भी हुए, परन्तु उन पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया ।
इधर श्रीकृष्ण अपने मन में जिनेन्द्र भगवान का स्मरण करके, वृक्ष की छाया में पीताम्बर वस्त्र ओढ़कर सो गये । थके-माँदै सो रहे थे....। दैवयोग से उनका भाई जरतकुमार भी वहाँ आ पहुँचा, वह भी उसी वन में अकेला शिकार पाने के लिए घूम रहा था । वह नेमिनाथ प्रभु के वचनों की श्रद्धा के बिना और भाई के प्रति अति स्नेह के कारण, उनक रक्षा करने के लिए ही द्वारिका से दूर जाकर वन में रहता था, परन्तु प्रभु के द्वारा देखे हुए भवितव्य को कौन मिटा सकता है ? जिस वन में वह रहता था, उसी वन में श्रीकृष्ण भी आ गये.... श्रीकृष्ण के द्वारा ओढ़ा हुआ वस्त्र हवा में उड़ रहा था, वह देखकर उसने उसे खरगोश का कान समझ लिया और दुष्ट परिणामी जरतकुमार ने बाण छोड़ दिया.... और उस बाण से हरि के पैर का तलवा छिद गया, जख्मी हो गया। भाई के हाथ से ही भाई का घात हुआ । दुर्निवार भवितव्य अंत में होकर ही रहा।
पैर में बाण लगते ही श्रीकृष्ण एकदम उठे और चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ कोई नहीं दिखा, इसलिए उन्होंने आवाज लगायी -
“अरे ! इस निर्जन वन में हमारा शत्रु कौन है ? जिसने मेरा पैर