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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४१
में निमग्न हैं। वे जगत के मायाजाल से बहुत दूर....संसार के विषय वातावरण से पार....और मानो परम शान्त अनन्त सुखमय सिद्ध भगवन्तों के एकदम पास रह रहे हैं....अनन्त सुखमय आत्मा के ध्यान में वे पूरे के पूरे एकाग्र होते जा रहे हैं।
तभी क्रोध से आगबबूला होता हुआ अंगारक हाथ में लाठी लेकर मुनिराज को ढूँढ़ने दौड़ता हुआ आ रहा है....ध्यानस्थ मुनिराज को दूर से देखते ही वह गरजा – “अरे पाखण्डी ! जल्दी बोल !! बता, मेरा मणि कहाँ है ?"
परन्तु जवाब कौन देवे ? मुनिराज तो ध्यानस्थ हैं। यद्यपि वे मुनिराज अवधिज्ञानी थे, तथापि स्वरूप से बाहर आकर अवधिज्ञान का जब उपयोग करें, तब बतावें न; लेकिन वे तो आत्मसाधना में लीन थे, उन्हें मौन देखकर अंगारक का क्रोध और अधिक बढ़ गया।
उसने कहा – “अरे धूर्त ! दिन-दहाड़े चोरी करके अब ढोंग करता है। तू यह मत समझना कि मैं तुझे ऐसे ही छोड़ दूंगा। जल्दी बता! कहाँ है मेरा मणि ?"
___परन्तु यहाँ वीतरागी मुनिराज की क्षमारूपी ढाल के सामने क्रूरवचन रूपी बाण कोई असर नहीं कर सके....मुनिराज तो अडिग ध्यानस्थ ही थे।
जब अंगारक ने देखा कि उसके क्रूर वचनों का भी मुनिराज पर कोई असर नहीं हो रहा है तो उसने सोचा कि जरूर उन्होंने ही मेरा मणि कहीं छिपा दिया है....इसीलिये तो मौन हैं।
___ “बोल ! सीधे-सीधे मेरा मणि देता है या नहीं?....या....इसका स्वाद चखाऊँ" - ऐसा कहकर उसने मुनिराज पर वार करने के लिए लाठी उठाई।
अरे ! कुछ समय पूर्व ही जिनके पावन चरणों में जो श्रद्धापूर्वक