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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४० __“जरूर वे मुनिराज नहीं थे, बल्कि मुनि के वेष में कोई चोर होंगे....उन ढोंगी का ही यह काम लगता है।"
फिर भी अभी-अभी देखी उन वीतरागी मुनिराज की भव्यमुद्रा और हृदय में विद्यमान जैन धर्म के प्रति अतिशय भक्ति इन दोनों के कारण कलाकार के अन्तरंग से आवाज आई -
“अरे अंगारक ! यह क्या ? क्या तू पागल हो गया है ? जिन्होंने इन्द्रतुल्य वैभव को छोड़ दिया....और संसार को तृणतुल्य जानकर उसका त्याग कर दिया। जगत के पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि को छोड़कर जो बहुत आगे बढ़ गये हैं - क्या वे महामुनिराज तेरा पत्थर का टुकड़ा चुरायेंगे ? सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक् चारित्र ऐसे विश्व वंद्य रत्नों से जिनका आत्मा शोभायमान है, क्या वे इस जड़ रत्न पर मोहित होंगे ? अरें, जिन्होंने स्वात्मा में स्थित चैतन्य मणि प्राप्त कर लिया है, वे इस अचेतन मणि का क्या करेंगे ?"
क्षणमात्र के लिए तो उसे यह विचार आया, परन्तु जब मणि का ध्यान आया तो फिर उसके चित्त में प्रश्न उठा -
“यदि मुनिराज ने उसे नहीं चुराया तो वह गया कहाँ ?"
मणि के मोह में पागलवत् होकर उसने अन्त में यही निश्चय किया- “नहिं....नहिं....वे कोई मुनि नहीं, अपितु मायावी हैं और उनका ही यह काला काम है। इस ठग मायावी ने मंत्रादिक के प्रभाव से मणि चुराकर कहीं छिपा दिया होगा....परन्तु मुझसे बचकर वह कहाँ जायेगा ? मुनिवेष में रहकर ऐसे काम करता है - उसे तो मैं ऐसी शिक्षा दूंगा कि जिन्दगी भर याद रखेगा। चाहे जहाँ हो, मैं उसे पकड़कर लाऊँगा।" - ऐसा दृढ़ निश्चय करके वह क्रोध से अत्यन्त उत्तेजित होकर मुनि को खोजने के लिए उपवन की ओर तीव्र गति से बढ़ा।
उधर एकान्त शान्त उपवन में श्री ज्ञानसागर महाराज आत्मध्यान