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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/३९ आहारदान के बाद वह कलाकार आभूषण में पद्मरागमणि को जोड़ने हेतु जब वापस आया तो क्या देखता है - अरे ! यह क्या हुआ ? पद्मरागमणि गुम ! नहीं....नहीं....ऐसा नहीं हो सकता। उसने पूरा घर छान मारा, परन्तु पद्मरागमणि नहीं मिला, अतः उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया....उसका दिमाग मानो चक्कर खाने लगा....अरे ! परन्तु इतनी-सी देर में यह पद्मरागमणि गया कहाँ ? क्या उसके पंख लग गये थे, जो वह उड़ गया ? क्या कोई उसे चोरी करके ले गया ? नहीं....यहाँ घर में मुनिराज के अलावा तो कोई आया ही नहीं....फिर यह मणि गया तो गया कहाँ ? उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह मणि एकाएक कहाँ गुम गया।
मणि के गुम हो जाने से अंगारक व्याकुल होकर घर में यहाँ-वहाँ घूमने लगा....कुछ समय पूर्व मणि के तेज से जगमगाते उसके घर में अब अंधकार छा गया था....मानो पृथ्वी काँपने लगी थी....मणि के चले जाने से मानो उसकी अपनी प्रतिष्ठा भी चली गई - ऐसा उसे लगा। उसे चिन्ता हो रही थी कि अब महाराज को क्या जवाब दूंगा? हे भगवान अब क्या होगा ? निराशा से घिरा हुआ वह एकाएक क्रोध से लाल-पीला हो गया। बस, चाहे जो हो जाये; परन्तु वह मणि का पता लगाकर ही रहेगा। तब उसके मन में ऐसा खोटा विचार आया -
"अरे ! अभी-अभी ज्ञानसागर मुनिराज को आहारदान देने के समय मणि को इस पेटी पर रखा था....और वे मुनिराज आहार करके वापस जाते हैं और मणि गुम जाता है। इस बीच उनके अलावा अन्य कोई व्यक्ति मेरे घर में आया ही नहीं....इसलिए....? इसलिए....हो न हो, जरूर मुनिराज का ही इसमें हाथ होना चाहिये ? बस ! निर्णय हो गया !!"
___ - यह विचार आते ही जिन योगीराज के प्रति एकक्षण पहले उसको अत्यन्त भक्ति और श्रद्धा का अगाध दरिया उछल रहा था, अब उन्हीं मुनिराज के प्रति भयंकर क्रोधसे अंगारक अंगारे से समान बन गया।