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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४२ अपना सिर झुका रहा था, उनके ही सिर पर अब वह प्रहार करने को तैयार हो गया....हाय ! जीव के परिणामों की कितनी विचित्रता है। भावों का कैसा परिवर्तन ?
मुनिराज तो नहीं बोले....तो नहीं ही बोले....ध्यान से नहीं डिगे....तो नहीं ही डिगे। जब अंगारक ने मारने के लिए लकड़ी ऊपर उठाई और उसे नीचे किया ही था कि....वह लकड़ी उन तक पहुँचने से पहले ही डाल पर बैठे मोर में पर लगी और तभी करुण चीत्कार के साथ मोर के कण्ठ में से कोई चमकीली-सी वस्तु जमीन पर गिर पड़ी.... अरे ! यह क्या ? यह तो वही पद्मरागमणि है। उसी के लाल-लाल प्रकाश से पृथ्वी जगमगाने लगी है....मानो मुनिराज की रक्षा होने से....उनका उपसर्ग दूर होने की खुशी में आनन्द से हँस रही हो।
अंगारक तो इस मणि को देखकर आश्चर्यचकित ही रह गया था...उसकी आँखों के सामने फिर से अंधेरा छा गया था....लकड़ी हाथ में ही रह गई....और धड़ाम से वह मुनिराज के चरणों में गिर पड़ा। पद्मरागमणि के गुम हो जाने का रहस्य अब एकदम स्पष्ट हो गया था और यह कलाकार अपने अविचारी कृत्य के कारण पश्चाताप के सागर में अचेत होकर पड़ा था....ध्यानस्थ मुनिराज को तो बाहर क्या हो रहा है ? इसकी खबर ही कहाँ है ?
श्रीमुनिराज ने णमो सिद्धाणं कहकर जब ध्यान पूरा किया और आँखे खोली....तब देखा कि कुछ समय पूर्व (आहारदान के समय) का यह अंगारक यहाँ चरणों में पश्चाताप के कारण सिसक....सिसक कर रो रहा है....एक तरफ पद्ममणि धूल में धूल-धूसरित पड़ा है....थोड़ी दूर पर लकड़ी पड़ी है....ऊपर डाल पर बैठा मोर मणि की ओर टकटकी लगाकर देख रहा है....श्री मुनिराज को सारी परिस्थिति समझते देर नहीं लगी....उन्होंने अंगारक को आश्वासन देते हुए महा करुणार्द्र होकर कहा -