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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/३४ इतने में एक सिंह छलाँग लगाकर उनके ऊपर झपटा....यह सिंह वही जीव था जो पहले राजकुमार था तथा सिंह का वेष धारण करके ब्रह्मगुलालजी ने जिसके ऊपर धावा बोला था....वह राजकुमार का जीव मरकर सिंह हुआ था । वह ब्रह्मगुलाल मुनि के ऊपर जैसे ही धावा बोलने वाला था, तभी वह उनकी धीर-गंभीर-उपशांत मुद्रा देखकर रुक गया, उसे ऐसा लगा कि यह मुद्रा कहीं देखी है। तुरन्त उसे जातिस्मरण हुआ, "अरे, यह तो वही कलाकार ब्रह्मगुलाल ! मेरा मित्र ! जिसने सिंह के वेष में मुझे मार डाला था, अभी वह कैसा शांत स्थिर हो गया है। अरे, अब तो वह मुनि हो गया है। अहो, कहाँ सिंह का स्वाँग ! और कहाँ मुनिराज का स्वाँग ! कहाँ क्रूर हिंसकभाव !! और कहाँ यह परम शांतभाव !! जीव अपने परिणामों को कैसे पलट सकता है। अभी मैं (सिंह/राजकुमार) इनके ऊपर हमला करने के लिए तैयार हुआ था, फिर भी ये तो अपने आत्मध्यान में अडिग हैं। इनका सिंहपने का स्वाँग भी कितना सच्चा था और अभी मुनिपने का चरित्र भी कितना सच्चा है। वाह ! कैसा भावपरिवर्तन !! सम्यक् भाव-परिवर्तन करने वाला यह कलाविद् सचमुच वंदनीय है।"
- ऐसा विचार करके वह सिंह उन्हें वंदन करने लगा। ठीक उसी समय ब्रह्मगुलाल मुनिराज की दृष्टि उसके ऊपर पड़ी। दृष्टि पड़ते ही सिंह के भाव-परिवर्तन का उसे ख्याल आ गया, इसलिए करुणा से सिंह को संबोधने लगे -
“अरे सिंह ! अरे राजकुमार !! देखो....देखो....यह भावपरिवर्तन की कला। प्रत्येक जीव अपने भावों को क्षणमात्र में परिवर्तन करने की ताकत रखता है। अनादि संसार में यह जीव अनेक स्वाँग धारण कर चुका है, परन्तु वे सभी उसने क्रूर भावना के स्वाँग धारण किये है, शांत भाव के स्वाँग कभी धारण नहीं किये । आर्त्त-रौद्र ध्यान के द्वारा संसार के स्वाँग ही धारण करता है। यदि आत्मध्यान के द्वारा एक बार भी मोक्ष का