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- जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/३५ स्वाँग धारण करे तो जीव को दूसरा कोई स्वाँग धारण न करना पड़े। कहाँ तो तुम्हारा राजकुमार का स्वाँग और कहाँ ये सिंह का स्वाँग....। ये दोनों स्वाँग क्षणिक हैं, तुम्हारी काया का मूल स्वाँग तो सिद्धपद है। हे जीव! इसे तू संभाल !!"
श्रीमुनिराज का उपदेश सुनकर सिंह आनंदित हुआ, उसके भावों में भी अपूर्व परिवर्तन हुआ और आनंद की अश्रुधारा से मुनि के चरणों का प्रक्षालन करने लगा। इसी समय अचानक राजा वहाँ से निकले और वहाँ का आश्चर्यकारी दृश्य देखकर वहाँ रुक गये और श्री ब्रह्मगुलालजी मुनिराज से पूछा – “हे स्वामी ! यह सिंह आपके पास चरणों में क्यों शांत हो गया है ? और मुझे इसके प्रति वात्सल्य की भावना क्यों उत्पन्न हो रही है।"
ब्रह्मगुलालजी मुनि ने कहा- “सुनो, राजन् ! यह सिंह अन्य कोई नहीं, परन्तु तुम्हारा पुत्र ही है। मेरे सिंह के स्वाँग के समय तुम्हारे जिस राजकुमार की मृत्यु हुई थी, वही राजकुमार सिंह रूप में जन्मा है। वह राजकुमार का क्षणिक स्वाँग था और अब यह सिंह का स्वाँग भी क्षणिक है। सिद्धपद रूपी स्वाँग तो जीव का/चैतन्य का स्थिर स्वाँग है। इसलिए . हे राजन् ! पुत्रवियोग के शोक को छोड़कर सिद्धपद का उपाय करो।"
“यह सिंह मेरा ही पुत्र है" - ऐसा जानते ही राजा अतिस्नेह से उससे मिलने लगा, तब फिर मुनिराज ने कहा – “अरे राजन् ! विभाव के क्षणिक स्वाँग में मोह कैसा ? तुम्हारा यह राजापना भी क्षणिक है। पिता-पुत्र का संबंध भी क्षणिक है। छोड़ो अब तो छोड़ो ! इस क्षणिक स्वाँग के मोह को !!"
बस, राजा के विवेकचक्षु खुल गये – “अरे, कहाँ वह सिंह और कहाँ ये साधु ? कहाँ वह राजपुत्र और कहाँ यह सिंह ? अरे ! संसार में भ्रमण करके मैंने अनेक स्वाँग धारण किये और भ्रम से उन-उन स्वाँग को