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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/३३
जिनके हृदय में समतारस का सिन्धु उछल रहा हो ऐसे ब्रह्मगुलालजी ने हृदय की दृढ़ता व्यक्त करते हुए कहा -
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"राजन् ! साधु का वेष स्वाँग के लिए नहीं लिया जाता, मुनि क्षा मात्र स्वाँग करने जैसी वस्तु नहीं है, इसमें तो जीवनपर्यंत के ज्ञान और वैराग्य क़ी साधना होती है । मैं सांसारिक वैभव का त्याग कर चुका हूँ । जिससे वे मेरे लिए उच्छिष्ट के समान हैं। विवेकी जन उच्छिष्ट वस्तु का पुनः ग्रहण नहीं करते। मैं अब मात्र स्वाँगधारी साधु नहीं, मेरी अन्तरात्मा वास्तविक साधु होकर आत्म-साधना में रम रही है, जिसमें अब राज्य-वैभव के प्रलोभन के लिए कोई स्थान नहीं । मेरी वासना मर गई है और अब मैं अपने साधुपद के कर्तव्य में स्थिर हूँ। अब मैं अपने आत्मकल्याण के स्वतंत्र मार्ग पर ही विचरण करूँगा और जगत को दिव्य आत्मधर्म का संदेश सुनाऊँगा । आप मेरे मन को विचलित करने का निष्फल प्रयत्न न करें ।"
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मुनिराज ब्रह्मगुलालजी की वैराग्य से ओतप्रोत वाणी सुनकर राजा आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखता रहा - तभी ब्रह्मगुलाल मुनिराज खड़े हुए.... और अपनी पीछी- कमंडलु लेकर मंद-मंद गति से जंगल की ओर चले गये ।
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(नोट - कथा के भावों को स्पष्ट करने के लिए और कथा को विशेष प्रभावी बनाने के उद्देश्य से आगे का कथानक लेखक द्वारा लिखा गया है।)
मुनिराज ब्रह्मगुलालजी वन में एक वृक्ष के नीचे चैतन्य के ध्यान में लीन हैं। अनादि से धारण किये आर्त्त - रौद्र ध्यान रूप स्वाँगों को छोड़कर उन्होंने परम उपशांत भाव रूप अपूर्व स्वाँग को धारण किया है - अहा ! अपूर्व शांत मुद्रा में मुनिराज सुशोभित हो रहे हैं ।