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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/३२ हृदय का शोक नष्ट हो गया, उनके मन का पाप धुल गया, अंतर में द्वेष की ज्वाला शांत हो गयी। ब्रह्मगुलालजी के पवित्र व्यक्तित्व पर आज पहले ही दिन से महाराज को अनन्य श्रद्धा हो गयी। हर्षित हृदय से उन्होंने कहा -
“ब्रह्मगुलालजी आपने महात्मा के कार्य को जैसा का तैसा पालन किया है, साधु-स्वाँग धारण करके आपने हमारे मन से शोक मिटा दिया है। मैं आपके इस साधु-स्वाँग को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ, इसलिए आप इच्छित वरदान माँगो; अब जो आप माँगोगे, वह मैं देने के लिए तैयार हूँ।"
ब्रह्मगुलालजी को साधु-स्वाँग से भ्रष्ट करने के लिए प्रलोभन के रूप में यह एक जाल फेंका गया था, परन्तु वे इसमें नहीं फँसे, वे बोले
___ “राजन् ! आप एक दिगम्बर साधु के सामने ऐसे अनुचित शब्दों का प्रयोग क्यों कर रहे हैं ? क्या आप नहीं जानते कि जैन साधुओं को राज्य-वैभव की इच्छा नहीं होती। उन्हें अपने आत्मवैभव के साम्राज्य के सामने संसार के वैभव की लेशमात्र इच्छा नहीं है।"
“हे नरेश्वर ! ममता के सभी बंधनों को मैंने तोड़ दिया है, अब मैं निर्ग्रन्थ जैन साधु हूँ और आपके पास से मुझे किसी भी वस्तु की अभिलाषा नहीं है। मैं तो मुक्तिपथ का पथिक हूँ, पूर्ण स्वतन्त्रता हमारा ध्येय है, आत्मध्यान मेरी संपत्ति है, अपनी संपत्ति से मैं संतुष्ट हूँ। इसके अलावा मैं और कुछ नहीं चाहता।"
ब्रह्मगुलालजी की एक बार और परीक्षा करने के लिए राजा ने कहा – “परन्तु आपने यह साधुवेष तो सिर्फ स्वाँग के लिए ही ग्रहण किया है और यह तो मेरी इच्छा पूरी करने के लिए ही किया था, जिससे उसमें कोई वास्तविकता नहीं होनी चाहिये। तुम्हारे स्वाँग का कार्य पूरा हुआ, अब तुम्हें यह स्वाँग बदल लेना चाहिये और इच्छित वैभव प्राप्त करके तुम्हें अपना जीवन सुखमय व्यतीत करना चाहिये।"